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मंगलवार, 29 अक्तूबर 2013

क्या है टेलीपैथिक विद्या?

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टेलीपैथी को हिंदी में दूरानुभूति कहते हैं। टेली शब्द से ही टेलीफोन, टेलीविजन आदि शब्द बने हैं ये सभी दूर के संदेश और चित्र को पकड़ने वाले यंत्र हैं। आदमी के मस्तिष्क में भी इस तरह की क्षमता होती है। बस उस क्षमता को पहचानकर उसका उपयोग करने की बात है।

कोई व्यक्ति जब किसी के मन की बात जान ले या दूर घट रही घटना को पकड़ कर उसका वर्णन कर दे तो उसे पारेंद्रिय ज्ञान से संपन्न व्यक्ति कहा जाता है। महाभारत काल में संजय के पास यह क्षमता थी। उन्होंने दूर चल रहे युद्ध का वर्णन धृतराष्ट्र को सुनाया था।

भविष्य का आभास कर लेना भी टेलीपैथिक विद्या के अंतर्गत ही आता है। किसी को देखकर उसके मन की बात भांप लेने की शक्ति हासिल करने तो बहुत ही आसान है। 

इस तरह की शक्ति जिसके पास होती है मोटे तौर पर इसे ही टेलीपैथी कह दिया जाता है। दरअसल टेलीपैथी दो व्यक्तियों के बीच विचारों और भावनाओं के उस आदान-प्रदान को भी कहते हैं।

इस विद्या में हमारी पांच ज्ञानेंद्रियों का इस्तेमाल नहीं होता, यानी इसमें देखने, सुनने, सूंघने, छूने और चखने की शक्ति का इस्तेमाल नहीं किया जाता। यह हमारे मन और मस्तिष्क की शक्ति होती है और यह ध्यान तथा योग के अभ्यास से हासिल की जा सकती है।

टेलीपैथी शब्द का सबसे पहले इस्तेमाल 1882 में फैड्रिक डब्लू एच मायर्स ने किया था। कहते हैं कि जिस व्यक्ति में यह छठी ज्ञानेंद्रिय होती है वह जान लेता है कि दूसरों के मन में क्या चल रहा है। यह परामनोविज्ञान का विषय है जिसमें टेलीपैथी के कई प्रकार बताए जाते हैं।sabhar ; (वेबदुनिया)

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आत्म सम्मोहन सीखना चाहते हैं तो यहां क्लिक करें

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सम्मोहन विद्या भारतवर्ष की प्राचीनतम और सर्वश्रेष्ठ विद्या है। सम्मोहन विद्या को ही प्राचीन समय से 'प्राण विद्या' या 'त्रिकालविद्या' के नाम से पुकारा जाता रहा है। अंग्रेजी में इसे हिप्नोटिज्म कहते हैं। सम्मोहन का अर्थ वशीकरण नहीं है। आत्म सम्मोहन सीखना सबसे आसान है जटिल है तो बस आपका मन।

सम्मोहन की अवस्था : सम्मोहन व्यक्ति के मन की वह अवस्था है जिसमें उसका चेतन मन धीरे-धीरे तन्द्रा की अवस्था में चला जाता है और अर्धचेतन मन सम्मोहन की प्रक्रिया द्वारा निर्धारित कर दिया जाता है। साधारण नींद और सम्मोहन की नींद में अंतर होता है।

सम्मोहन नींद में हमारा चेतन मन अपने आप सो जाता है तथा अर्धचेतन मन जागृत हो जाता है। अर्थचेतन मन के अलावा हमारा आदिम चेतन मन भी होता है उसके जागने से व्यक्ति आत्मसम्मोहन की पूर्णावस्था में होता है।  पढ़ेंगे कैसे साधे इस मन और आत्म सम्मोहन सीखने का सबसे सरल तरीका।
प्राणायम और ध्यान के लगातार अभ्यास से प्रत्याहार को साधे और प्रत्याहार से धारणा को। जब आपका मन स्थिर चित्त हो, एक ही दिशा में गमन करे और इसका अभ्यास गहराने लगे तब आप अपनी इंद्रियों में ऐसी शक्ति का अनुभव करने लगेंगे जिसको आम इंसान अनुभव नहीं कर सकता। इसको साधने के लिए त्राटक भी कर सकते हैं त्राटक भी कई प्रकार से किया जाता है।

ध्यान, प्राणायाम और नेत्र त्राटक द्वारा सम्मोहन की शक्ति को जगाया जा सकता है। त्राटक उपासना को हठयोग में दिव्य साधना से संबोधित किया गया है। आप उक्त साधना के बारे में जानकारी प्राप्त कर किसी योग्य गुरु के सान्निध्य में ही साधना करें। उक्त मन को सहज रूप से भी साधा जा सकता है। इसके लिए आप प्रतिदिन सुबह और शाम को प्राणायाम के साथ ध्यान करें।

अन्य तरीके : कुछ लोग अंगूठे को आंखों की सीध में रखकर तो, कुछ लोग स्पाइरल (सम्मोहन चक्र), कुछ लोग घड़ी के पेंडुलम को हिलाते हुए, कुछ लोग लाल बल्ब को एकटक देखते हुए और कुछ लोग मोमबत्ती को एकटक देखते हुए भी उक्त साधना को करते हैं, लेकिन यह कितना सही है यह हम नहीं जानते।

सरल तरीका : प्रतिदिन 3 माह तक रात्रि में ध्यान करते-करते सो जाएं। यह अच्छी तरह जान लें की ध्यान में सोना नहीं है। ध्यान नींद से उत्तम है। जब आप ध्यान में सोएंगे नहीं तो आत्म सम्मोहन की अवस्था में पहुंच जाएंगे।

आप चाहे तो सोते सोते ही ध्यान करें। ध्यान करते करते नींद और जागने के बीच पहुंच जाएंगे। नींद में जागे रहने का प्रारंभिक अनुभव ही आत्मसम्मोहन की शुरुआत है। अब आप कुछ भी जानने और शरीर के बगैर कहीं भी जाने के लिए स्वतंत्र हैं। ऐसी अवस्था में आप खुद ही अनुभव करेंगे की आप आत्म सम्मोहित हो गए हैं। अब खुद को किसी भी प्रकार का निर्देश दें।

योग पैकेज : नियमित सूर्य नमस्कार, प्राणायाम और योगनिंद्रा करते हुए ध्यान करें। ध्यान में विपश्यना और नादब्रह्म का उपयोग करें। प्रत्याहार का पालन करते हुए धारणा को साधने का प्रयास करें। संकल्प के प्रबल होने से धारणा को साधने में आसानी होगी है। संकल्प सधता है अभ्यास के महत्व को समझने से। इसके संबंध में ज्यादा जानकारी के लिए मिलें किसी योग्य योग शिक्षक या सम्मोहनविद से। sabhar :
http://hindi.webdunia.com/


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ऐसे जानें पूर्वजन्म को

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हमारा संपूर्ण जीवन स्मृति-विस्मृति के चक्र में फंसा रहता है। उम्र के साथ स्मृति का घटना शुरू होता है, जोकि एक प्राकृति प्रक्रिया है, अगले जन्म की तैयारी के लिए। यदि मोह-माया या राग-द्वेष ज्यादा है तो समझों स्मृतियां भी मजबूत हो सकती है। व्यक्ति स्मृति मुक्त होता है तभी प्रकृति उसे दूसरा गर्भ उपलब्ध कराती है। लेकिन पिछले जन्म की सभी स्मृतियां बीज रूप में कारण शरीर के चित्त में संग्रहित रहती है। विस्मृति या भूलना इसलिए जरूरी होता है कि यह जीवन के अनेक क्लेशों से मुक्त का उपाय है। 

योग में अ‍ष्टसिद्धि के अलावा अन्य 40 प्रकार की सिद्धियों का वर्णन मिलता है। उनमें से ही एक है पूर्वजन्म ज्ञान सिद्धि योग। इस योग की साधना करने से व्यक्ति को अपने अगले पिछले सारे जन्मों का ज्ञान होने लगता है। यह साधना कठिन जरूर है, लेकिन योगाभ्यासी के लिए सरल है।

कैसे जाने पूर्व जन्म को : योग कहता है कि ‍सर्व प्रथम चित्त को स्थिर करना आवश्यक है तभी इस चित्त में बीज रूप में संग्रहित पिछले जन्मों का ज्ञान हो सकेगा। चित्त में स्थित संस्कारों पर संयम करने से ही पूर्वन्म का ज्ञान होता है। चित्त को स्थिर करने के लिए सतत ध्यान क्रिया करना जरूरी है। 

जाति स्मरण का प्रयोग : जब चित्त स्थिर हो जाए अर्थात मन भटकना छोड़कर एकाग्र होकर श्वासों में ही स्थिर रहने लगे, तब जाति स्मरण का प्रयोग करना चाहिए। जाति स्मरण के प्रयोग के लिए ध्यान को जारी रखते हुए आप जब भी बिस्तर पर सोने जाएं तब आंखे बंद करके उल्टे क्रम में अपनी दिनचर्या के घटनाक्रम को याद करें। जैसे सोने से पूर्व आप क्या कर रहे थे, फिर उससे पूर्व क्या कर रहे थे तब इस तरह की स्मृतियों को सुबह उठने तक ले जाएं।

दिनचर्या का क्रम सतत जारी रखते हुए 'मेमोरी रिवर्स' को बढ़ाते जाए। ध्यान के साथ इस जाति स्मरण का अभ्यास जारी रखने से कुछ माह बाद जहां मोमोरी पॉवर बढ़ेगा, वहीं नए-नए अनुभवों के साथ पिछले जन्म को जानने का द्वार भी खुलने लगेगा। जैन धर्म में जाति स्मरण के ज्ञान पर विस्तार से उल्लेख मिलता है।

क्यों जरूरी ध्यान : ध्यान के अभ्यास में जो पहली क्रिया सम्पन्न होती है वह भूलने की, कचरा स्मृतियों को खाली करने की होती है। जब तक मस्तिष्क कचरा ज्ञान, तर्क और स्मृतियों से खाली नहीं होगा, नीचे दबी हुई मूल प्रज्ञा जाग्रत नहीं होगी। इस प्रज्ञा के जाग्रत होने पर ही जाति स्मरण ज्ञान (पूर्व जन्मों का) होता है। तभी पूर्व जन्मों की स्मृतियां उभरती हैं।

सावधानी : सुबह और शाम का 15 से 40 मिनट का विपश्यना ध्यान करना जरूरी है। मन और मस्तिष्क में किसी भी प्रकार का विकार हो तो जाति स्मरण का प्रयोग नहीं करना चाहिए। यह प्रयोग किसी योग शिक्षक या गुरु से अच्‍छे से सिखकर ही करना चाहिए। सिद्धियों के अनुभव किसी आम जन के समक्ष बखान नहीं करना चाहिए। योग की किसी भी प्रकार की साधना के दौरान आहार संयम जरूरी रहता है।   अनिरुद्ध जोशी 'शतायु  sabhar :http://hindi.webdunia.com

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सोमवार, 26 अगस्त 2013

क्या लुप्त हो चुके जीव कभी वापस लौट पाएंगे?

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लुप्त हो चुके जीव, प्रजातियाँ


लुप्त हो रहे जीवों को हमारी दुनिया में वापस लौटाने की दिशा में कुछ वैज्ञानिक गंभीरता से विचार कर रहे हैं.
लेकिन सवाल उठता है कि क्या यह मुमकिन है और अगर हाँ तो इसका क्या इस्तेमाल होगा.

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माइकल क्रिक्टन के उपन्यास पर आधारित फिल्म दि जुरासिक पार्क लुप्तप्राय प्रजातियों को पुनर्जीवित करने के लिए तकनीक के इस्तेमाल के मुद्दे को सँभल कर छूती हुई लगती है.
स्टीवन स्पीलबर्ग के निर्देशन में 20 साल पहले बनी इस फिल्म में एक सनकी अरबपति की कहानी कही गई थी जो क्लोनिंग के जरिए बनाए गए डायनासोर की रिहाइश वाला एक थीम पार्क रचता है.
कहने की जरूरत नहीं है कि कहीं कुछ गड़बड़ी हो जाती है और इस विचार को जन्म देने वाले लोग अपने जीवन के लिए संघर्ष करते हुए दिखाई देने लगते हैं.
लेकिन इस कहानी को जन्म देने वाले बुनियादी विचार पर कुछ वैज्ञानिक लुप्त हो चुके जीवों को फिर से गढ़ने की संभावनाओं पर संजीदगी से सोच रहे हैं.
इतना नहीं बल्कि उन जीवों के प्राकृतिक आवास को भी नए सिरे से बनाने पर विचार किया जा रहा है.

पारीस्थितिकी तंत्र

लुप्त हो चुके जीव, प्रजातियाँ
साइबेरियाई क्षेत्र के पूर्वोत्तर कोने पर स्थित प्लेस्टोसिन पार्क इसी का एक उदाहरण है.
यहाँ लुप्त हो चुके जीवों के लिए अनुकूल पारिस्थितिकी तंत्र को गढ़ने के सपने को आकार देने की कोशिश की जा रही है.
यहाँ घास का बड़ा मैदान है जिसमें बड़े आकार के शाकाहारी जीव रह सकते हैं जैसे बारहसिंगा, बाइसन जीव और लुप्त हो चुके बड़े रोएँ वाले विशालकाय हाथी.
बारहसिंगा और बाइसन की लुप्त हो चुकी प्रजातियों को पहले से ही दोबारा गढ़ा जा चुका है लेकिन बड़े रोएँ वाले भीमकाय हाथियों ने चुनौती खड़ी कर रखी है.
इन भीमकाय हाथियों की बर्फ में जमी हुई कोशिकाएँ, इनके डीएनए के जरिए नया क्लोन बनाना.
ये ऐसे विचार हैं जो लंबे समय से विज्ञान फंतासियों का हिस्सा रहे हैं लेकिन क्या इन्हें वास्तव में हकीकत की शक्ल दी जा सकती है.
लंदन के नैचुरल हिस्ट्री म्यूज़ियम से जुड़े जीवाश्म वैज्ञानिक प्रोफेसर एड्रियन लिस्टर ऐसा नहीं मानते.
वह कहते हैं, “क्योंकि इन जानवरों के अवशेष हजारों साल पहले नष्ट हो चुके हैं.”

क्लोन तकनीक

लुप्त हो चुके जीव
डीएनए की पूरी संरचना जाने बगैर भीमकाय हाथी या मैमथ का क्लोन तैयार कर पाने की संभावना न के बराबर ही है. हालांकि डीएनए के अवशेष फिर भी कारगर हो सकते हैं.
एक योजना यह भी है कि मैमथ के जीनोम और उसके टूटे हुए तंतुओं को इकट्ठा करके कुछ कोशिश की जा सकती है. ये चीजें उनके अवशेषों के अलग अलग नमूनों से इकट्ठा की गई हैं.
इसके बाद मैमथ के जीनोम की तुलना उसके सबसे करीबी जीवित जानवर यानी एशियाई हाथी से उसकी तुलना करके किसी तार्किक नतीजे पर पहुँचा जा सकता है. शोधकर्ताओं को उम्मीद है कि इस तुलनात्मक अध्ययन से यह पता लगाया जा सकेगा कि एक मैमथ आखिर किस तरह से मैमथ बना होगा.
इसके बाद वैज्ञानिक एशियाई हाथी के डीएनए का इस्तेमाल मैमथ के डीएनए की जानकारियों में छूट रही कमियों को भरने में करेंगे. यह तकनीक लगभग वैसी होगी जैसी कि जुरासिक पार्क फिल्म में दिखाई गई थी. यही तरीका क्लोन तकनीक से बनाए गए डॉली नाम के भेड़ में अपनाया गया था.
मुमकिन है कि इसके बाद विशालकाय मैमथ दोबारा से रचा जा सके. हालांकि प्रोफेसर लिस्टर कहते हैं कि अभी इसमें कई “अगर और मगर” हैं.
हालांकि जुरासिक पार्क फिल्म की तरह कोई भी डायनोसोरों को वापस लाने की दिशा में गंभीरतापूर्वक विचार नहीं कर रहा है लेकिन लुप्त हो चुके जीवों को वापस लौटने से हमारे पारिस्थितिकी तंत्र पर असर पड़ सकता है. sabhar http://www.bbc.co.uk/

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मंगलवार, 20 अगस्त 2013

"हाँ, मेरे जिस्म में प्लूटोनियम है"

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क्रिस्टीन इवरसन

क्रिस्टीन इवरसन
अमरीका के डेनवर, कोलोराडो में रॉकी फ़्लैट्स परमाणु संयंत्र के पास क्रिस्टीन इवरसन का बचपन गुज़रा है.
संयंत्र से होने वाले प्रदूषण के बारे में सालों तक किसी को पता नहीं था और लोग इसके शिकार होते रहे.




करेंपरमाणु संयंत्र के पड़ोस में ज़िंदगी पर क्रिस्टीन ने इस बारे में एक किताब 'फ़ुल बॉडी बर्डन' लिखी है.
रॉकी फ़्लैट्स में 38 साल के दौरान 70 हज़ार से ज़्यादा प्लूटोनियम पिट्स या ट्रिग्रर्स का उत्पादन किया गया. इन ट्रिग्रर्स को किसी भी क्लिक करेंपरमाणु हथियार का दिल कहा जाता है.

मदर्स डे फ़ायर


रॉकी फ़्लैट्स बचपन के मेरे घर से सिर्फ़ 3 मील दूर था. उस समय यह पूरी तरह रहस्य के आवरण में घिरा हुआ था और आज भी है.
जब मैं छोटी थी तब प्लांट डाउ कैमिकल्स द्वारा चलाया जा रहा था और लोग कहते थे कि वह घर में सफ़ाई करने वाले उत्पाद बनाता है.
दरअसल कोई नहीं जानता था कि वहां क्या होता था. कर्मचारियों को इसके बारे में बात करने की इजाज़त नहीं थी और प्रेस से बहुत कम या बिल्कुल कोई जानकारी नहीं मिलती थी.
शुरू-शुरू में लोगों को लगता था कि यह रहस्यात्मक वातावरण शीत-युद्ध की कूटनीति के चलते बनाया गया था और कई लोगों को जिनमें मेरे पिता भी शामिल थे, यह ज़रूरी लगता था.
परमाणु संयत्र
रॉकी फ्लैट्स परमाणु संयंत्र के बारे में कोलोरेडो के लोगों को कोई जानकारी नहीं थी
1970-80 में अदालत में कई मामले जाने के बाद और इस बारे में प्रेस में छपने के बाद ही लोगों को थोड़ा-बहुत पता चला.
11 मई, 1967 को मुख्य प्लूटोनियम उत्पादन संयंत्र की इमारत संख्या 771 में आग लग गई. इसे 'मदर्स डे फ़ायर' के नाम से जाना जाता है.
उस दिन जब मैं, मेरी दोनों बहनें, भाई, मां और पिता मदर्स डे की ख़ुशियां मनाते हुए घर में शाम का नाश्ता कर रहे थे ठीक उसी समय एक रेडियोएक्टिव बादल हमारे सिर के ऊपर से गुज़र रहा था.
ग्लव्स बॉक्स से शुरू हुई यह आग प्लूटोनियम के कारण तेजी से भड़की और इतनी तेज हो गई कि इमारत की छत गलने लगी और बुलबुले की तरह उठ गई.

विश्वासघात

रॉकी फ़्लैट्स में 800 से ज़्यादा इमारतें थीं जिनमें से ज़्यादातर भूमिगत थीं. सड़क से इनका पता नहीं चलता था और यह तभी दिखती थीं जब आप हवाई जहाज़ से नीचे देखें.
इसीलिए हम लोगों को इस बारे में ज़्यादा कुछ पता नहीं था.
दुर्घटना इसी इलाके में हुई थी और कुछ ही सेकेंड में हम क्लिक करेंचेर्नोबिल जैसे हादसे का शिकार हो सकते थे.
जब मैं छोटी थी तब मुझे विश्वास था और कोलोराडो में बहुत से लोगों को यह भरोसा अब भी होगा कि इस प्लांट चलाने वाली सरकार या कंपनियां अगर हमारी ज़िंदगी या सेहत को ख़तरे में डालेंगी तो इसके बारे में हमें ज़रूर बताएंगी. लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया.
रेडियोएक्टिव प्रदूषण हमारे पड़ोस तक आ गया था लेकिन उस वक्त हमें पता नहीं था.
मैं और मेरी बहन प्लांट के चारों तरफ़ घोड़े दौड़ाते रहते थे. उस झील में तैरते थे जिसे प्लूटोनियम ने प्रदूषित कर दिया था.
फुकुशिमा परमाणु संयंत्र
परमाणु संयंत्र का रेडियोएक्टिव कचरा आसपास के इलाके में फैल गया था
प्लूटोनियम सबसे ख़तरनाक था लेकिन उसके अलावा ट्रिटेनियम, एमरिसियम, कार्बन टेट्राक्लोराइड का भी प्रदूषण था.
इसका सबसे ख़राब पहलू यह था कि हमारे माता-पिता को लगता था कि वह हमें बहुत अच्छे माहौल में पाल रहे हैं.
हमारे पास घोड़े थे, कुत्ते थे, शानदार पहाड़ी इलाका था जहां हम हमेशा बाहर खेलते रहते थे.
लेकिन वातावरण ज़हरीला था और हमें इसका पता नहीं था. यह बहुत बड़ा विश्वासघात था.

जांच

जब मैंने सोचा था कि मैं किताब लिखूंगी तो वह घोड़ों और कुत्तों के साथ खेलते हुए बड़े होने के बारे में थी.
क्लिक करेंपरमाणु प्रदूषण के बारे में मुझे सही मायने में तभी पता चला जब मैं प्लांट में काम करने लगी.
हमारे पड़ोस के बहुत से लोग प्लांट में काम करते थे.
"यहां बहुत बड़ी समस्या है. यहां 14 टन से ज़्यादा प्लूटोनियम रखा हुआ है और ज़्यादातर असुरक्षित ढंग से."
मार्क सिल्वरमैन, प्रबंधक, ऊर्जा विभाग
जब मैं काम करने गई तब मैं दो बच्चों वाली एक अकेली मां थी.
मैं वहां रोज़ जाती थी लेकिन मुझे इसके बारे में कुछ पता नहीं था, मेरे साथ काम करने वाले किसी को कुछ पता नहीं था.
एक दिन मैं जब घर लौटी और मैंने टीवी खोला तो मैंने देखा कि उसमें रॉकी फ़्लैट्स पर ख़बर आ रही थी.
उसमें मेरे साथ काम करने वाले बहुत से लोगों के साक्षात्कार थे. इनमें ऊर्जा विभाग के प्रबंधक मार्क सिल्वरमैन भी थे.
सिल्वरमैन ने कहा कि यहां बहुत बड़ी समस्या है. यहां 14 टन से ज़्यादा प्लूटोनियम रखा हुआ है और ज़्यादातर असुरक्षित ढंग से.
मुझे तभी पहली बार इस बारे में पता चला और मैं भौंचक्की रह गई.
तभी मैंने सोच लिया था कि मैं नौकरी छोड़ दूंगी और एक किताब लिखूंगी. लेकिन मुझे यह पता नहीं था कि इसके शोध और लेखन में 10 साल लग जाएंगे.
ऊर्जा विभाग के स्वामित्व वाले प्लांट पर 1989 में एफ़बीआई और ईपीए (पर्यावरण सुरक्षा संस्था) ने छापा मारा.
एफ़बीआई और ईपीए के सदस्यों ने एक हवाई जहाज़ से इलाके की इंफ्रारेड तस्वीरें उतारीं. इसमें प्लांट से स्थानीय आबादी के बीच जाते हुए रेडियोएक्टिव पदार्थ को सफ़ेद रंग में देखा जा सकता है.
इसके बाद दो साल तक एक ग्रैंड ज्यूरी की जांच हुई.

ज़मीन का मामला

परमाणु ऊर्जा संयंत्र
लोगों के जीवन को खतरे में डालने वालों को कोई सज़ा नहीं मिली
ज्यूरी ने ऊर्जा विभाग और प्लांट का संचालन करने वाली कंपनी रॉकवेल के अधिकारियों पर मामला दर्ज करने की सिफ़ारिश की थी.
लेकिन किसी भी अधिकारी पर कोई मामला नहीं चलाया गया.
ज्यूरी के सदस्य इतने नाराज़ थे कि उन्होंने अपनी एक रिपोर्ट लिखी लेकिन जज ने उसे सील कर दिया और वह आज तक सील है.
प्लांट के आस-पास रहने वाले 13,000 लोग जिनकी ज़मीन प्लूटोनियम से प्रदूषित हो गई थी, अदालत चले गए.
इसका फ़ैसला आने में बीस साल लगे और अदालत ने लोगों के हक़ में फ़ैसला दिया. हालांकि तकनीकी कारणों से ऊपरी अदालत में यह केस ख़ारिज हो गया.
ख़ास बात यह है कि यह केस प्लूटोनियम के कारण लोगों की सेहत ख़राब होने को लेकर नहीं था प्रदूषण के चलते ज़मीन के दाम गिरने के लिए किया गया था.
क्योंकि बहुत से शोधों से पता चला है कि रॉकी फ़्लैट्स के आसपास रहने वाले लोगों के शरीर में प्लूटोनियम है. इन लोगों में मैं भी शामिल हूं.
इससे किसी को थायराइड, कैंसर जैसी बीमारियां हो सकती हैं लेकिन कई बार इसके लक्षण दिखने में बहुत वक्त लग जाता है.
ऐसे ही कई कारणों की वजह से सेहत में नुक्सान वाले मामलों को अदालत में नहीं ले जाया जा सकता.
6000 एकड़ के इस इलाके को बाड़ लगाकर घेर दिया गया है लेकिन ऐसी कोई सूचना नहीं दी गई है कि वहां जाना ख़तरनाक है. 13000 एकड़ का इलाका इतना ज़्यादा प्रदूषित है कि उसे इंसानों के लिए कभी नहीं खोला जा सकता. sabhar : www.bbc.co.uk

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इंसान के बाद डॉल्फिन की याददाश्त 'सबसे लंबी'

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"काई" को भी  शोध  में शामिल किया गया था. जब यह तस्वीर ली गई तब काई छ साल का था.


वैज्ञानिकों का कहना है कि मनुष्यों के बाद सबसे लंबी याद्दाश्त डॉल्फिन मछली की होती है. अभी तक माना जाता था कि मनुष्यों के बाद हाथी की याद्दाश्त सबसे लंबी होती है.
अमरीका के शोधकर्ताओं का कहना है कि एक दूसरे से अलग होने के 20 साल बाद भी डॉल्फिन अपने पूर्व साथियों की सीटी जैसी आवाज़ पहचान लेती हैं.

यह शोध 'प्रेसीडिंग्स ऑफ रॉयल सोसाइटी बी' में प्रकाशित हुआ है.वैज्ञानिकों का मानना है कि यह लंबी याद्दाश्त डॉल्फिनों के जटिल सामाजिक ताने -बाने का परिणाम है.
56 पालतू "बॉटल नोज़ डॉल्फिनों" पर किए गए शोध से यह जानकारी मिली है. इन्हें अमरीका और बरमूडा के छह अलग- अलग चिड़ियाघरों और एक्वेरियम में प्रजनन के लिए लाया गया था.
दशकों पुराने आंकड़ों से पता चलता है कि कौन सी डॉल्फिन साथ रहती थीं.

ऐली और बैली

"डॉल्फिनों के सामजिक तंत्र के का जटिल ढांचा इस लंबी याद्दाश्त का कारण है."
डॉल्फिनों के सामजिक तंत्र के का जटिल ढांचा इस लंबी याददाश्त का कारण है.
शोधकर्ताओं ने पानी में रखे लाउडस्पीकरों पर डॉल्फिनों के पुराने साथियों की विशेष सीटियां बजाईं और उनकी प्रतिक्रिया देखी.
शोध करने वाले शिकागो विश्वविद्यालय के डॉक्टर जैसन ब्रक ने बताया, "जब उनकी जानी पहचानी आवाज़ बजाई गई तो क्लिक करेंडॉल्फिनें लंबे समय तक लाउडस्पीकरों के आस पास मंडराती रहीं और अनजानी आवाज़ों को उन्होंने नज़रंदाज़ कर दिया."
जैसन ब्रक कहते हैं, "जीव व्यवहार में इतनी लंबी याद्दाश्त पहले कभी नहीं देखी गई."
डॉक्टर ब्रक ने ऐली और बैली नाम की दो क्लिक करेंडॉल्फिनों का उदाहरण देते हुए अपनी बात स्पष्ट की. इन दोनों को कभी फ्लोरिडा में एक साथ रखा गया था.
बैली अब बरमूडा में रहती है. जब ऐली की रिकॉर्डिंग बजाई गई तब बैली ने तुरंत प्रतिक्रिया दी, जबकि दोनों को एक दूसरे के संपर्क में आए 20 साल छह महीने से ज्यादा हो चुका था.

परिवार

"पूर्व साथी की आवाज़  सुनकर डॉल्फिन यह निर्धारित करती है कि उसे पुराने समूह में लौटना है या नहीं."
पूर्व साथी की आवाज़ सुनकर डॉल्फिन यह निर्धारित करती है कि उन्हें पुराने समूह में लौटना है या नहीं
शोधकर्ताओं का विश्वास है कि डॉल्फिनों के सामजिक तंत्र का जटिल ढांचा इस लंबी याद्दाश्त का कारण है.
डॉल्फिनें अपने जीवन में कई बार एक समूह छोड़ कर दूसरे समूह में शामिल हो सकती हैं.
डॉक्टर ब्रक कहते हैं, "अपने साथी की आवाज़ पहचानना उनके लिए ज़रूरी हो जाता है. कई मील दूर से अपने पूर्व साथी की आवाज़ सुनकर क्लिक करेंडॉल्फिन यह निर्धारित करती है कि उसे पुराने समूह में लौटना है या नहीं. "
शोधकर्ताओं के अनुसार डॉल्फिनों की यह विशेषता उन्हें मनुष्यों, चिम्पांजी और हाथियों की दुनियादारी की समझ के करीब ला खड़ा करती है.
हाथी भी 20 साल से ज़्यादा समय तक याद रख सकते हैं. लेकिन अपने परिवार के बाहर की चीज़ों को वो कितना याद रखते हैं, इस बारे में बहुत थोड़ी जानकारी प्राप्त है.
डॉल्फिनों पर किया गया यह शोध बताता है कि वह परिवार के साथ-साथ अजनबियों को भी याद रख सकने में सक्षम हैं.
हाल ही में हुआ शोध बताता है कि हर डॉल्फिन की अपनी ख़ास आवाज़ (सीटी) होती है. यह उसी प्रकार से काम करती है जैसे कि मनुष्यों के लिए उनका नाम. sabhar : www.bbc.co.uk

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मंगलवार, 9 जुलाई 2013

इंसान की तरह हैं डॉल्फिन

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भारत सरकार ने माना है कि डॉलफिन एक ऐसा जीव है जिसकी समझ बूझ इंसानों से तुलनीय है, इसलिए उन्हें भी जीने के वैसे ही अधिकार मिलने चाहिए जैसे इंसानों को.
भारत से लोग खास तौर से थाईलैंड और सिंगापुर में डॉलफिन पार्क देखने जाते हैं. अधिकतर लोगों ने सफेद और काली चमड़ी वाले इन समुद्री जानवरों को टीवी विज्ञापनों या फिर फिल्मों में ही देखा है. हाल ही में भारत में डॉलफिन पार्क बनाए जाने की योजना बनी. इन्हें राजधानी नई दिल्ली, मुंबई और कोच्चि में बनाया जाना था. लेकिन कोच्चि में डॉलफिन पार्क का निर्माण शुरू होते ही पर्यवारणविदों ने प्रदर्शन शुरू कर दिए. वे इन जानवरों को मनोरंजन का जरिया बनाने के खिलाफ थे. इन प्रदर्शनों को देखते हुए सरकार ने अब डॉलफिन पार्क बनने पर रोक लगा दी है.
'नॉन ह्यूमन पर्सन'
भारत सरकार ने डॉलफिन को नॉन ह्यूमन पर्सन या गैर मानवीय जीव की श्रेणी में रखा है. यानी ऐसा जीव जो इंसान न होते हुए भी इंसानों की ही तरह जीना जानता है और वैसे ही जीने का हक रखता है. इसके साथ ही भारत दुनिया का चौथा ऐसा देश बन गया है जहां सिटेशियन जीवों को मनोरंजन के लिए पकड़ने और खरीदे जाने पर रोक लगा दी गयी है. भारत के अलावा कोस्टा रीका, हंगरी और चिली में भी ऐसा ही कानून है.
भारत के पर्यावरण और वन मंत्रालय ने राज्य सरकार से हर तरह के डॉलफिनेरियम पर रोक लगाना को कहा है. एक बयान में मंत्रालय ने कहा है, "डॉलफिन को नॉन ह्यूमन पर्सन के रूप में देखा जाना चाहिए और इसलिए उनके अपने कुछ अधिकार होने चाहिए". पर्यावरणविद सरकार के इस फैसले से बहुत खुश हैं. फेडरेशन ऑफ इंडियन एनीमल प्रोटेक्शन ऑरगेनाइजेशन (एफआईएपीओ) की पूजा मित्रा ने डॉयचे वेले से बातचीत में कहा कि इससे भारत में जानवरों को बचाने की मुहीम पर असर पड़ेगा.
परिवार से लगाव
डॉलफिन को अधिकार दिलाने की मुहीम शुरू हुई तीन साल पहले फिनलैंड में. उस समय दुनिया भर से वैज्ञानिक और पर्यावरणकर्ता राजधानी हेलसिंकी में जमा हुए और डिक्लेरेशन ऑफ राइट्स फॉर सिटेशियन पर हस्ताक्षर किए. जल जीवन पर काम कर रही जानी मानी वैज्ञानिक लोरी मरीनो भी वहां मौजूद थीं. उन्होंने इस बात के प्रमाण दिए कि सिटेशियन जीवों के पास मनुष्यों की ही तरह बड़े और पेचीदा दिमाग होते हैं. इस कारण वे काफी बुद्धिमान होते हैं और आपस में संपर्क साधने में काफी तेज भी. उन्होंने अपने शोध में दर्शाया है कि डॉलफिन में भी इंसानों की ही तरह आत्मबोध होता है.
साथ ही वे इतने समझदार होते हैं कि औजारों से काम करना भी सीख लेते हैं. हर डॉलफिन एक अलग तरह की सीटी बजाता है जिस से कि उसकी पहचान हो सकती है. इसी से वह अपने परिवारजनों और दोस्तों को पहचानते हैं. पूजा मित्रा बताती हैं, "वे अपने परिवार से बहुत जुड़े होते हैं. उनकी अपनी ही संस्कृति होती है, शिकार करने के अपने ही अलग तरीके और बोलचाल के भी".
समझदारी का नुकसान
लेकिन डॉलफिन की यही काबिलियत उनकी दुश्मन बन गयी है. वे इतने समझदार होते हैं कि लोग उन्हें तमाशा करते देखना पसंद करते हैं. दुनिया भर में सबसे अधिक डॉलफिन पार्क जापान में हैं. यहीं सबसे अधिक डॉलफिन पकड़े भी जाते हैं. मित्रा बताती हैं कि डॉलफिन को पकड़ने का काम हिंसा से भरा होता है, "वे डॉलफिन के पूरे झुंड को पकड़ लेते हैं, फिर वे मादा डॉलफिन को अलग करते हैं जिनके शरीर पर कोई निशान ना हो और जिन्हें पार्क में इस्तेमाल किया जा सके, बाकियों को अधिकतर मार दिया जाता है".
डॉलफिन खुले पानी में तैरने के आदि होते हैं और रास्ता ढूंढने के लिए वे सोनार यानी ध्वनि की लहरों का इस्तेमाल करते हैं. लेकिन जब उन्हें पकड़ कर टैंक में रख दिया जाता है तो वे बार बार टैंक की दीवारों से टकराते हैं. इससे वे तनाव में आ जाते हैं और खुद को नुकसान भी पहुंचाने लगते हैं. दीवारों से टकराने के कारण कई बार उन्हें चोटें आती हैं या फिर दांत टूट जाते हैं.
यह सब देखते हुए भारत का यह कदम दूसरे देशों के लिए सीख बन सकता है. भारत 2020 तक गंगा में मौजूद डॉलफिन को बचाने की मुहीम भी चला रहा है.
रिपोर्ट: सरोजा कोएल्हो/ईशा भाटिया
संपादन: मानसी गोपालकृष्णन sabhar : dw.de

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