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सोमवार, 30 अगस्त 2021

चिनूक_हेलिकॉप्टर

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अमेरिका से भारत सरकार द्वारा कई चिनूक हेलीकॉप्टर खरीदे गए थे।यह भारी-भरकम,वजनी डबल इंजन हेलिकॉप्टर सुदूर पर्वतीय क्षेत्रों में तैनात सेना के जवानों के साजो-सामान और रसद को बखूबी पहुंचाने में बहुत उपयोगी साबित हुआ है।अभी चार दिन पहले एक चिनूक हेलीकॉप्टर प्रयागराज से बिहटा के लिए जा रहा था।रास्ते मे ही अचानक कोई तकनीकी खराबी के कारण उसे बक्सर के एक गांव मानिकपुर में स्थित हाईस्कूल के एक मैदान में इमरजेंसी लैंडिंग करानी पड़ी।वायुसेना के तकनीकी विशेषज्ञों की टीम में दो दिन में ही उसकी तकनीकी खराबी ठीक कर दी लेकिन अत्यधिक बारिश और घासयुक्त दलदली जमीन के कारण हेलीकॉप्टर टेकऑफ नही कर पा रहा था।तीन चार ट्रैक्टर मंगवा कर उसे खिंचवाने का प्रयास किया गया लेकिन हेलीकॉप्टर टस से मस नही हुआ।विगत तीन दिन से आसपास के सारे ग्रामीणों की इस भारी भरकम हेलिकॉप्टर देखने के लिए भीड़ सी लगी रहती थी।जब सारे प्रयासों से भी हेलीकॉप्टर टेकऑफ नही कर पाया तो स्थानीय ग्राम प्रधान और उपस्थित ग्रामीणों ने विंग कमांडर मालपुरे और अमर मणि त्रिपाठी से अनुरोध किया कि इसके सकुशल टेकऑफ के लिए थोड़ा पूजापाठ करना चाहते हैं।विंग कमांडर तुरन्त तैयार हो गए।फिर क्या था।आनन फानन में सारी पूजा सामग्री इकठ्ठी की गई।विधिवत मंत्रोच्चार से पूजापाठ हुआ।ग्राम प्रधान ने नारियल फोड़ा और हेलीकॉप्टर को तिलक लगाया।भारत माता की जय के गगनभेदी नारों के बीच पायलट ने पुनः प्रयास किया और हेलीकॉप्टर का टेकऑफ हो गया।कुछ ही क्षणों में हेलिकॉप्टर आकाश में नजर आया।
      अब इस घटना की कैसे व्याख्या की जाय?आपकी मर्जी है।वामपंथी और इस प्रकार के पूजापाठ को अंधविश्वास मानने वाले लोग भले नाक भौं सिकोड़े लेकिन सच्चाई तो आपके समक्ष है।जो भी हो,आस्था,विश्वास और विज्ञान का अद्भुत समन्वय है यह घटना। sabhar Facebook wall

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मंगलवार, 17 अगस्त 2021

चौंसठ कलाओं और चन्द्रमा की सोलह कलाओं का अर्थ ?

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क्या है चौंसठ कलाओं और चन्द्रमा की सोलह कलाओं का अर्थ ?
क्या है चौंसठ कलाओं  का अर्थ?-

 05 FACTS;-

1-प्राचीन काल में भारतीय शिक्षा-क्रम का क्षेत्र बहुत व्यापक था। शिक्षा में कलाओं की शिक्षा भी अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखती थीं ।भारतीय साहित्य में कलाओं की अलग-अलग गणना दी गयी है।कला का लक्षण  हैं कि जिसको एक मूक (गूँगा) व्यक्ति भी, जो वर्णोच्चारण भी नहीं कर सकता, कर सके, वह 'कला' है।काम और अर्थ कला के ऊपर आश्रय पाते हैं।राम 12 कलाओं के ज्ञाता थे तो भगवान श्रीकृष्ण सभी 16 कलाओं के ज्ञाता हैं। चंद्रमा की सोलह कलाएं होती हैं। सोलह श्रृंगार के बारे में भी आपने सुना होगा।  उपनिषदों अनुसार 16 कलाओं से युक्त व्यक्ति ईश्‍वरतुल्य होता है। जो व्यक्ति मन और मस्तिष्क से अलग रहकर बोध करने लगता है वहीं 16 कलाओं में गति कर सकता है।कुमति, सुमति, विक्षित, मूढ़, क्षित, मूर्च्छित, जाग्रत, चैतन्य, अचेत आदि शब्दों का संबंध हमारे मन और मस्तिष्क से होता है। भारतीय साहित्य में 'प्रबन्ध कोश' तथा 'शुक्रनीति सार' में कलाओं की संख्या  64 है। 

2-'ललितविस्तर' में तो 86 कलाएँ गिनायी गयी हैं।परन्तु  शैव तन्त्रों में चौंसठ कलाओं का उल्लेख मिलता है।लीला-पुरुषोत्तम-योगेश्वर श्रीकृष्ण चौसठ कला सम्पन्न माने जातें है। ये 64 कलाएं नाम भेद से अन्य ग्रन्थों में भी उल्लेखित है।जीवन को सुखपूर्वक जीने के लिए, जिन्दगी को बेहतर बनाने के लिए हुनर व कौशल की आवश्यकता होती है। यह कला बुद्धि, विवेक व अभ्यास से आती है। धन-सम्पदा, साधन-सुविधाएँ उसके उपार्जन में सहायक तो हो सकती हैं किन्तु सब कुछ नहीं। इसीलिए कलाहीन को असभ्य कहा जाता है। ऐसा व्यक्ति कल्पनाहीन होता है, रूचिसंपन्न नहीं होता।मन पर संयम, पूर्ण स्वास्थ्य और सच्ची प्रसन्नता के लिए जीने की कला का जानना जरूरी है। भोगमात्र को जीवन का लक्ष्य मानने वाले यह कला नहीं सीख सकते। जीवन जीने की कला का अर्थ है कि हमारे हर काम में उत्कृष्टता हो ।

 3-इन चौंसठ कलाओं को मुख्यतः पाँच वर्गों में विभाजित किया जा सकता है -

1. चारू (ललितकला):- 

नृत्य, गीत, वाद्य, चित्रकला, प्रसाधन आदि कलाएँ चारू अर्थात् ललितकला के अन्तर्गत आती हैं।

2. कारू (उपयोगी कलाएँ):- 

नाना प्रकार के व्यंजन बनाने की कला, कढ़ाई, बुनाई, सिलाई की कला तथा कुर्सी, चटाई आदि बुनने की कलाएँ “कारू” वर्ग के अन्तर्गत आती हैं।

3. औपनिषदिक कलाएँ:- 

औपनिषदिक कलाओं के अन्तर्गत वाजीकरण, वशीकरण, मारण, मोहन, उच्चाटन, यन्त्र, मन्त्रों एवं तन्त्रों के प्रयोग, जादू-टोना आदि से सम्बन्धित कलाओं का परिगणन किया जा सकता है।

4. बुद्धिवैचक्षण्य कलाएँ ;- 

इसके अन्तर्गत पहेली बुझाना, अन्त्याक्षरी, समस्यापूत्र्ति, क्लिष्ट काव्य रचना, शास्त्रज्ञान, भाषाज्ञान, वाक्पटुता, भाषणकला, भेड़-मुर्गा-तीतर-बटेर आदि को लड़ाने की कला, तोता-मैनादि पक्षियों को बोली सिखाने की कला आदि का समावेश होता है।

5. क्रीड़ा-कौतुक:- 

क्रीड़ाकौतुक के अन्तर्गत द्यूतक्रीड़ा, शतरंज, व्यायाम, नाट्यकला, जलक्रीड़ा, आकर्षक्रीड़ा आदि से सम्बन्धित कलाओं का परिगणन किया जा सकता है।

 4-निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि चौंसठ कलाएँ न केवल प्राचीन काल में उपयोगी रही हैं अपितु वर्तमान काल में भी इसकी उपयोगिता और आवश्यकता बरकरार है।भारतवर्ष की इन प्राचीन कलाओं को विशिष्ट रूप से संरक्षित करते हुए भावी पीढ़ी को इसे सिखाने की जिम्मेदारी भी हमारी बनती है। कला हमारे अन्दर कर्मण्यता का भाव जगाती है ,हमें कर्मशील बनाती है। इसलिए कर्म को पूजा का पर्याय कहा जाता है। यदि शिक्षा, ज्ञान, अनुभव तथा नया व अच्छा सीखने की ललक हो तो जीवन जीने की कला आसानी से सीखी जा सकती है। इसके लिए सद्गुणों व सदाचरण की आवश्यकता पड़ती है। दुर्गुणों से दूर रहकर व्यसनों को तिलांजलि देनी पड़ती है।

5-64  कलायें निम्नलिखित हैं-    

1- गानविद्या

2- वाद्य - भांति-भांति के बाजे बजाना

3- नृत्य

4- नाट्य

5- चित्रकारी

6- बेल-बूटे बनाना

7- चावल और पुष्पादि से पूजा के उपहार की रचना करना

8- फूलों की सेज बनान

9- दांत, वस्त्र और अंगों को रंगना

10- मणियों की फर्श बनाना

11- शय्या-रचना (बिस्तर की सज्जा)

12- जल को बांध देना

13- विचित्र सिद्धियाँ दिखलाना

14- हार-माला आदि बनाना

15- कान और चोटी के फूलों के गहने बनाना

16- कपड़े और गहने बनाना

17- फूलों के आभूषणों से शृंगार करना

18- कानों के पत्तों की रचना करना

19- सुगंध वस्तुएं-इत्र, तैल आदि बनाना

20- इंद्रजाल-जादूगरी

21- चाहे जैसा वेष धारण कर लेना

22- हाथ की फुर्ती  के काम

23- तरह-तरह खाने की वस्तुएं बनाना

24- तरह-तरह पीने के पदार्थ बनाना

25- सूई का काम

26- कठपुतली बनाना, नाचना

27- पहेल

28- प्रतिमा आदि बनाना

29- कूटनीति

30- ग्रंथों के पढ़ाने की चातुरी

31- नाटक आख्यायिका आदि की रचना करना

32- समस्यापूर्ति करना

33- पट्टी, बेंत, बाण आदि बनाना

34- गलीचे, दरी आदि बनाना

35- बढ़ई की कारीगरी

36- गृह आदि बनाने की कारीगरी

37- सोने, चांदी आदि धातु तथा हीरे-पन्ने आदि रत्नों की परीक्षा

38- सोना-चांदी आदि बना लेना

39- मणियों के रंग को पहचानना

40- खानों की पहचान

41- वृक्षों की चिकित्सा

42- भेड़ा, मुर्गा, बटेर आदि को लड़ाने की रीति

43- तोता-मैना आदि की बोलियां बोलना

44- उच्चाटन की विधि

45- केशों की सफाई का कौशल

46- मुट्ठी की चीज या मनकी बात बता देना

47- म्लेच्छित-कुतर्क-विकल्प...वस्तुतः यह बीजलेखन (क्रिप्टोग्राफी) और गुप्तसंचार की कला है।ऐसे संकेत से लिखना, जिसे उस संकेत को जानने वाला ही समझे।

48- विभिन्न देशों की भाषा का ज्ञान

49- शकुन-अपशकुन जानना, प्रश्नों उत्तर में शुभाशुभ बतलाना

50- नाना प्रकार के मातृकायन्त्र बनाना

51- रत्नों को नाना प्रकार के आकारों में काटना

52- सांकेतिक भाषा बनाना

53- मन में कटक रचना करना

54- नयी-नयी बातें निकालना

55- छल से काम निकालना

56- समस्त कोशों का ज्ञान

57- समस्त छन्दों का ज्ञान

58- वस्त्रों को छिपाने या बदलने की विद्या  

59- द्यू्त क्रीड़ा

60- दूर के मनुष्य या वस्तुओं का आकर्षण

61- बालकों के खेल

62- मन्त्रविद्या

63- विजय प्राप्त कराने वाली विद्या

64- बेताल आदि को वश में रखने की विद्या

क्या है चन्द्रमा की सोलह कला ?-

07 FACTS;-

 1-प्रत्येक व्यक्ति को अपनी तीन अवस्थाओं का ही बोध होता है:- जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति। जगत तीन स्तरों वाला है- 1.एक स्थूल जगत, जिसकी अनुभूति जाग्रत अवस्था में होती है। 2.दूसरा सूक्ष्म जगत, जिसका स्वप्न में अनुभव करते हैं और 3.तीसरा कारण जगत, जिसकी अनुभूति सुषुप्ति में होती है।  तीन अवस्थाओं से आगे: सोलह कलाओं का अर्थ संपूर्ण बोधपूर्ण ज्ञान से है। मनुष्‍य ने स्वयं को तीन अवस्थाओं से आगे कुछ नहीं जाना और न समझा। प्रत्येक मनुष्य में ये 16 कलाएं सुप्त अवस्था में होती है। अर्थात इसका संबंध अनुभूत यथार्थ ज्ञान की सोलह अवस्थाओं से है। इन सोलह कलाओं के नाम अलग-अलग ग्रंथों में भिन्न-भिन्न मिलते हैं।  

2-The Moon has 16 kalas, or phases. Out of these 15 are visible to us and the 16th is beyond our visibility. 16 कलाएं दरअसल बोध प्राप्त योगी की भिन्न-भिन्न स्थितियां हैं। बोध की अवस्था के आधार पर आत्मा के लिए प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा तक चन्द्रमा के प्रकाश की 15 अवस्थाएं ली गई हैं। अमावास्या अज्ञान का प्रतीक है तो पूर्णिमा पूर्ण ज्ञान का। 16 कलाओं के नाम हैं...  

1-अमृता ,  2.मानदा ,  3.पूषा , 4.तुष्टि ,   5.पुष्टि ,  6.रति ,   7.धृति ,  8.ससीचिनी ,  9.चन्द्रिका , 4.तुष्टि , 10.कांता ,  11.ज्योस्तना ,  12.श्री ,  13.प्रीती ,  14.अँगदा  ,  15. पूर्णा 16.पूरनअमृता । ये  चंद्रमा के प्रकाश की 16 अवस्थाएं हैं उसी तरह मनुष्य के मन में भी एक प्रकाश है। मन को चंद्रमा के समान ही माना गया है। जिसकी अवस्था घटती और बढ़ती रहती है। चंद्र की इन सोलह अवस्थाओं से 16 कला का चलन हुआ।इसी को प्रतिपदा, दूज, एकादशी, पूर्णिमा आदि भी कहा जाता है।  व्यक्ति का देह को छोड़कर पूर्ण प्रकाश हो जाना ही प्रथम मोक्ष है।      

 3-These 16 kalas are ruled by the 16 Nitya Devis. They are called Shodasa Nityas. They are: 1.महा त्रिपुरा  सुंदरी ,  2.कामेश्वरी ,  3.भगमालिनी ,  4.नित्यक्लिन्ना ,  5.भेरुण्डा ,  6.वन्हीवासिनी , 7.महा  वज्रेश्वरी ,  8.शिवदूती  (रौद्री ),  9.त्वरिता ,  10.कुलसुंदरी ,  11.नित्या  ,  12.नीलपताका ,  13.विजया  ,  14.सर्वमंगला ,  15.ज्वालामालिनी 16.चिद्रूपा  (चित्रा  )।  नित्याओ में से पहिली नित्या श्रीकामेश्वरी हैं।कामेश्वरी देवी शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि हैं , जो उगते हुए सूर्य अथवा अंधेरे से रोशनी की ओर ले जाने वाली । यह इच्छाओं की देवी हैं , आपके गहनतम विचारों में छुपी हुई इच्छाओं को प्रगट करना और पूर्ति करना यही उसका कार्य हैं। इस देवी का तेज दस करोड़ सूर्य की तेज की भांति हैं। यह देवी दो तिथियो पर कमांड करती हैं , अमावस्या के बाद आने वाली प्रतिपदा और पूर्णिमा के बाद आने वाली प्रतिपदा तिथि 

पर।

4-कामदेव को भस्म करने से पूर्व उसे अपने नेत्रों में सुरक्षित रखने वाली , तथा उसे अपने नेत्रो से फिरसे पुनः जीवन देने वाली जो शक्ति हैं , वह यही हैं ।कामदेव के पाँच बाण और पाँच कामदेव के रूप में जो तेज है , वह इसी देवी के कारण उसे प्राप्त होता हैं।

1. कामराज ह्रीं

2. मन्मथ क्लीं

3. कंदर्प ऐं

4. मकरकेतन ब्लूम

5. मनोभव स्त्रीं

5-ईस तरह से ये देवी की 5 शक्तियाँ 5 कामदेव के रूप हैं। जो पाँच बाण है , वह देवी के हाथों में हैं ।वह देवी लाल रंग की हैं , छह हाथ , तीन नेत्र , चंद्रकोर और पूर्ण आभूषण से युक्त उसका शरीर हैं। ईख का दंडा , पुष्पबाण सहित हैं ।सूर्य की सुबह की पहली किरण की ऊर्जा , सृजन की मूल शक्ति प्रेरणा और ब्रम्हा को सृष्टि सृजन की जो शक्ति थी वह यही श्रीकामेश्वरी नित्या हैं। कामदेव को जन्म देने वाली , उसे पुनः जीवन देने वाली अर्थात …. इन सबका मूल कामदेव ही हैं , और उसकी शक्ति कामेश्वरी नित्या ।कामेश्वरी नित्या कामनाओं की कामना , इच्छाओं की इच्छा को भी पूर्ण करने की क्षमता रखती हैं। जो अंधेरे में है उसे उजाले में लाती हैं । व्यक्ति के गुणों को बढ़ावा देती हैं।इच्छा, ज्ञान ,क्रिया में यह 'इच्छा शक्ति' है ।

6-भगवान् आद्य शङ्कराचार्य ने सौन्दर्यलहरी में ललिताम्बा षोडशी श्रीविद्या की स्तुति करते हुए कहा है कि "अमृत के समुद्र में एक मणि का द्वीप है, जिसमें कल्पवृक्षों की बारी है, नवरत्नों के नौ परकोटे हैं उस वन में चिन्तामणि से निर्मित महल में ब्रह्ममय सिंहासन है जिसमें पञ्चकृत्य के देवता ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र और ईश्वर आसन के पाये हैं और सदाशिव फलक हैं। सदाशिव की नाभि से निर्गत कमल पर विराजमान भगवती षोडशी त्रिपुरसुन्दरी का जो ध्यान करते हैं वे धन्य हैं। भगवती ललिता के प्रभाव से उन्हें भोग और मोक्ष दोनों सहज ही उपलब्ध हो जाते हैं।''षोडशी महाविद्या के ललिता, त्रिपुरा, राज-राजेश्वरी, महात्रिपुरसुन्दरी, बालापञ्चदशी आदि अनेक नाम हैं। लक्ष्मी, सरस्वती, ब्रह्माणी - तीनों लोकों की सम्पत्ति एवं शोभा का ही नाम श्री है।'त्रिपुरा' शब्द का अर्थ है- जो ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश- इन तीनों से पुरातन हो वही त्रिपुरा हैं। 'त्रिपुरार्णव' ग्रन्थ में कहा गया है-  'सुषुम्ना, पिंगला और इडा - ये तीनों नाडियां हैं और मन, बुद्धि एवं चित्त - ये तीन पुर हैं। इनमें रहने के कारण इनका नाम त्रिपुरा है।  

7-षोडशी महाविद्या हैं भुक्ति-मुक्ति-दायिनी ।सोलह अक्षरों के मन्त्रवाली ललिता देवी की अङ्गकान्ति उदीयमान सूर्यमण्डल की आभा की भांति है।तन्त्रशास्त्रों में महाविद्या षोडशी देवी को पञ्चवक्त्रा अर्थात् पाँच मुखों वाली बताया गया है। चारों दिशाओं में चार मुख और एक ऊपर की ओर मुख होने से इन्हें पञ्चवक्त्रा कहा जाता है। देवी के पाँचों मुख तत्पुरुष, सद्योजात, वामदेव अघोर और ईशान शिव के पाँचों रूपों के प्रतीक हैं। भगवती महात्रिपुरसुंदरी ललिता महाविद्या अपने उपासक को भुक्ति और मुक्ति दोनों प्रदान करती हैं।भगवान् शङ्कराचार्य ने भी श्रीविद्या के रूप में इन्हीं षोडशी देवी की उपासना की थी। इसीलिये आज भी सभी शाङ्करपीठों में भगवती षोडशी राजराजेश्वरी त्रिपुरसुन्दरी की श्री यन्त्र के रूप में आराधना करने की परम्परा चली आ रही है। षोडशी महाविद्या हैं भुक्ति-मुक्ति-दायिनी।दुर्वासा ऋषि श्रीविद्याके परमाराधक हुए हैं। षोडशी महाविद्या की उपासना श्रीचक्र में होती है।इन आद्याशक्ति षोडशी महाविद्या के स्थूल, सूक्ष्म, पर तथा तुरीय चार रूप हैं।ध्यान की महिमा मन्त्र जप से भी अधिक बतलाई गई है। 

IMPORTANT NOTES;-

1-Out of these, the first one, Maha Tripura Sundari is the Devi Para Shakti herself, and hence the kala ruled by her is not visible to the normal mortals. Hence we see only the other 15 kalas or phases ruled by the other nityas. In the Sri Chakra these 15 nityas are present in the innermost circle, and the Devi is in the central bundu.  These 15 Nityas rule the famous 15 letters Devi mantra known as Panchadasakshari Mantra: Ka E Aie La Hreem Ha Sa Ka Ha La Hreem Sa Ka La Hreem  These 15 Nityas in the form of the 15 Tithis (Phases) have two aspects each – Prakashamsa, which rules the day portion of the Tithi, and Vimarshamsa, which rules the night part of the Tithi. At night they collect the divine nectar and during the day they release it.  

2-On Poornima or full moon day all the 15 Nityas are in the moon and the moon is shining brightly. On the 1st Thithi after the Poornima, i.e., Pratipada, one Nitya leaves the moon and goes to the sun and the moon is reduced slightly in size. On the next Dwiteeya Tithi another Nitya leaves the moon and goes to the sun and the moon is further reduced in size. This way they leave one by one till the moon becomes totally dark on the 15th day, which is called Amavasya or the new moon day. This is known as Krishna Paksha or the waning phase.  

3-After Amavasya they return one by one on each Tithi and the moon starts shining again till its full on the Poornima when the last Nitya returns to it. This is called Shukla Paksha. Kameswari to Chitra are the Nityas ruling the Krishna Paksha Tithis from Pratipada to Amavasya. In Shukla Paksha the order of the Nityas is reversed, i.e., Chitra to Kameswari.  The Nitya of the Asthami or 8th Tithi, Twarita, is common and constant to both the Pakshas. Hence she adorns the crown of Devi. 

4-सोलहवीं कला पहले और पन्द्रहवीं को बाद में स्थान दिया है। इससे निर्गुण -सगुण स्थिति भी सुस्पष्ट हो जाती है। सोलह कला युक्त पुरुष में व्यक्त अव्यक्त की सभी कलाएं होती हैं ।यही दिव्यता है...।

1.बुद्धि का निश्चयात्मक हो जाना।

2.अनेक जन्मों की सुधि आने लगती है।

3.चित्त वृत्ति नष्ट हो जाती है।

4.अहंकार नष्ट हो जाता है।

5.संकल्प-विकल्प समाप्त हो जाते हैं। स्वयं के स्वरुप का बोध होने लगता है।

6.आकाश तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। कहा हुआ प्रत्येक शब्द सत्य होता है।

7.वायु तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। स्पर्श मात्र से रोग मुक्त कर देता है।

8.अग्नि तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। दृष्टि मात्र से कल्याण करने की शक्ति आ जाती है।

9.जल तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। जल स्थान दे देता है। नदी, समुद्र आदि कोई बाधा नहीं रहती।

10.पृथ्वी तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। हर समय देह से सुगंध आने लगती है, नींद, भूख प्यास नहीं लगती।

11.जन्म, मृत्यु, स्थिति अपने आधीन हो जाती है।

12.समस्त भूतों से एक रूपता हो जाती है और सब पर नियंत्रण हो जाता है। जड़ चेतन इच्छानुसार कार्य करते हैं।

13.समय पर नियंत्रण हो जाता है। देह वृद्धि रुक जाती है अथवा अपनी इच्छा से होती है।

14.सर्वव्यापी हो जाता है। एक साथ अनेक रूपों में प्रकट हो सकता है। पूर्णता अनुभव करता है। लोक कल्याण के लिए संकल्प धारण कर सकता है।

15.कारण का भी कारण हो जाता है। यह अव्यक्त अवस्था है।

16.उत्तरायण कला- अपनी इच्छा अनुसार समस्त दिव्यता के साथ अवतार रूप में जन्म लेता है जैसे राम, कृष्ण। यहां उत्तरायण के प्रकाश की तरह उसकी दिव्यता फैलती है।

..SHIVOHAM...

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सोमवार, 16 अगस्त 2021

ट्रेन विद हाइड्रोजन फ्यूल सेल

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कुछ दिनों पहले एक खबर पढ़ी थी, कि जर्मनी दुनिया का पहला देश बनने जा रहा है, जहां हाइड्रोजन फ्यूल सेल से ट्रेन चलेंगी.... ऐसा ही कुछ रिसर्च और ट्रायल पोलैंड में भी होने की खबर आ रही है.

हाइड्रोजन फ्यूल सबसे क्लीन फ्यूल कहलाता है, जिसमें कार्बन फुटप्रिंट भी negligible होता है, और आपको डीजल या electricity की जरूरत नहीं रहती ट्रेन चलाने के लिए, जो किसी भी रेलवे सिस्टम को हर साल सैंकड़ो करोड़ की बचत करा सकता है।

मैं सोच रहा था, भारत में ये टेक्नोलॉजी या ये माइंडसेट आने में ही 10-15 साल लग जाएंगे... लेकिन यहां मैं गलत साबित हुआ। 

बड़ी खबर ये है, कि भारतीय रेलवे ने हाइड्रोजन फ्यूल पर काम करना शुरू कर दिया है, और अगर सब कुछ सही रहा तो हम दुनिया में दूसरे या तीसरे देश होंगे जहां हाइड्रोजन फ्यूल से चलने वाली ट्रेन होंगी।

इंडियन रेलवे ने Bids invite की है, जिसमें Private players को आमंत्रित किया गया है। डीजल से चलने वाली ट्रेन में हाइड्रोजन फ्यूल सेल लगाने के लिए। साथ ही इन ट्रेन में सोलर पेनल्स भी लगे होंगे....ये प्रोजेक्ट अक्टूबर से शुरू होने जा रहा है।

सोनीपत-जींद section की 2 DEMU trains का चुनाव किया गया है, इनमें ये सिस्टम लगाया जाएगा। सोलर पैनल से बनने वाली बिजली द्वारा पानी का electrolysis करके हाइड्रोजन अलग किया जाएगा और फिर Hydrogen Fuel Cell System द्वारा energy generate करके ट्रेन चलाई जाएगी। बाद में धीरे धीरे सभी डीजल train को hydrogen fuel पर migrate किया जाएगा।

मात्र इन दो ट्रेन को हाइड्रोजन से चलाने पर साल के 2.3 करोड़ रुपये के fuel bill की बचत होगी, अब आप अंदाजा लगा लीजिये, हमारे पास हजारों ट्रेन हैं, सभी में ये सिस्टम लगेगा तो कितनी बचत होने वाली है।

ऊपर से इस technology का उपयोग करने से Carbon Footprints (NO2) भी 11 Kilo Tonnes Per annum कम होगा, अगर इसे समूची इंडियन रेलवे में लगा दिया जाए तो समझिए कितना प्रदूषण हमेशा के लिए कम हो जाएगा।

इसके साथ ही भारत दुनिया में अकेला देश है जहां 1000 से ज्यादा रेलवे स्टेशन्स को पूरी तरह से Solar powered बनाया जा चुका है, और 2030 तक भारतीय रेलवे के सभी स्टेशन्स सोलर powered होंगे। इसके अलावा 50 के लगभग trains को भी सोलर पावर से चलाने के लिए काम किया जा रहा है।

ये वही इंडियन रेलवे है, जो कुछ साल पहले तक रेल मंत्री के राज्य में नई train शुरू करने की घोषणा तक सीमित हुआ करती थी। आये दिन एक्सीडेंट की खबरें, और हर साल हजारो मौतें हुआ करती थीं। बदबू से सराबोर रेलवे प्लेटफॉर्म, गंदगी से भरी हुई ट्रेन की पटरियां..…सने हुए टॉयलेट्स हुआ करते थे.... आज ये सब बदल चुका है।

अब रेल मंत्री कौन है, कौन से प्रदेश से है, किसी को नहीं पता। आज बात होती है तेजस की, बुलेट की, vistadome की, अत्याधुनिक DEMU की... वहीं पिछले 2 साल में इंडियन रेलवे accident free रहा है, एक भी मौत नहीं हुई... देश में एक भी crossing अब बिना controlled barrier के नहीं है, उन क्रासिंग पर हर साल हजारों मारे जाते थे, अब कोई नहीं मरता।

प्लेटफॉर्म्स और स्टेशन की सफाई world class है... हर train में Bio Toilet लग चुका है, जिससे ना सिर्फ टॉयलेट्स साफ रहते हैं, बल्कि पटरियां भी चौचक रहती हैं।

सुविधाएं बढ़ गयी हैं, वहीं innovation पर काम चल रहा है... सोलर और हाइड्रोजन जैसी टेक्नोलॉजी अपनाने में भारत दुनिया में सबसे आगे है।

और फिर कुछ दिलजले आते हैं और हाथ हिला हिला कर कहते हैं, कुछ नहीं बदला 7 साल में... ऐसे लोगों के लिए सरकार को रतौंधी, cataract और मोतियाबिंद का इलाज फ्री कर देना चाहिए 😊😊
               तस्वीर सांकेतिक है
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मेजर ध्यानचंद हॉकी का जादूगर

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मेजर ध्यानचन्द सुपुत्र स्व . श्री समेश्वरदत्त सिंह का जन्म 29 अगस्त , 1905 को इलाहाबाद में एक बैंस राजपूत परिवार में हुआ था । इनके पिता सेना में थे और बाद में झांसी में रहने लग गये । ध्यानचन्द भी 16 वर्ष की आयु में सेना में भर्ती हो गये । इनका नाम तो ध्यान सिंह था पर ऐसी मान्यता है कि वे रात के समय चन्द्रमा के प्रकाश में हॉकी का अभ्यास करते थे इसलिए इनके साथी इनको ध्यान चन्द के नाम से पुकारने लगे । वे सेना में सिपाही भी हुए और मेजर की रैंक से रिटायर हुए ।

हॉकी के खेल में जो ऊँचाइयाँ उन्होंने छुई , जो कीर्तिमान उन्होंने स्थापित किये , जो दक्षता उन्होंने प्रदर्शित की उसका समकक्ष इतिहास में ढूंढने से भी नहीं मिलेगा । यही नहीं भविष्य में भी लम्बे इंतजार के बाद भी शायद निराशा ही हाथ लगे । 

श्री ध्यानचन्द के बलबूते हमारी टीम ने लगातार तीन ( 1928,1932 और 1936 ) ओलम्पिक स्वर्ण पदक जीते जो अपने आप में एक कीर्तिमान है । 

1928 के एमस्टर्डम समर ओलम्पिक में हमारे पूल में ओस्ट्रिया , बेलजियम , डेनमार्क और स्विट्जरलैण्ड की टीमें थी । 17 मई , 1928 को ऑस्ट्रिया को 6-0 ( जिसमें ध्यानचन्द ने 3 गोल दागे ) से हराया । दूसरे दिन बेलजियम को 9-0 से और 20 मई को डेनमार्क को 5-0 ( ध्यान चन्द के तीन गोल ) से हराया । चौथे मैच में स्विटजरलैण्ड को 6-0 से हराया जिनमें ध्यानचन्द ने 4 गोल दागे । 26 मई को फाइनल में नीदरलैण्ड को 3-0 से हराकर देश के लिए पहला ओलम्पिक स्वर्ण पदक जीता । इन पाँच मैचों में ध्यानचन्द ने 14 गोल किये । इस पर एक समाचार - पत्र ने लिखा , - " यह हॉकी का खेल नहीं बल्कि जादूगरी है । " ध्यानचन्द के भाई रूप सिंह भी इस टीम में खेले । 

1932 के लॉस एन्जिलिस ओलम्पिक का पहला मैच जापान से खेला और 11-1 से जीत हासिल की । आखिरी मैच usa के खिलाफ 24-1 से जीता जो उस समय का विश्व रिकार्ड था । वहाँ के एक समाचार पत्र में लिखा- " भारतीय टीम एक पूर्व दिशा से आये तूफान की तरह थी जिसने सभी प्रतिद्वन्दियों को धराशायी कर अमेरिका की टीम कोउखाड़ फेंका । " 

1936 के ओलम्पिक से पहले 1934 में कई राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय अभ्यास मैच खेले गये । कुल मिलाकर 48 मैच खेले और सभी जीते जिनमें हमारी टीम ने 584 गोल दागे और मात्र 40 गोल खाये । इन 48 मैचों में से ध्यानचन्द 43 में खेले और 201 गोल अकेले ने दागे । 1935 में अभ्यास मैचों की श्रृंखला खेलते हुए वे 13 जुलाई को बर्लिन पहुंचे । यहाँ तक की रेल यात्रा बड़ी कष्टदायी और थका देने वाली थी । 17 जुलाई को एक अभ्यास मैच जर्मनी के विरुद्ध खेला और बदकिस्मती से 4-1 से हार गये जिसका सदमा काफी लम्बे समय तक रहा । 
1936 के बर्लिन ओलम्पिक का पहला मैच 05 अगस्त को हंगरीसे 4-0 से जीत लिया । इसी तरह शेष मैच usa से 7-0 , जापान से 9-0 और सेमीफाइनल में फ्रान्स से 10-0 से जीत लिया । दूसरे पूल से जर्मन टीम जीत कर फाइनल में पहुंची । इस तरह 1936 के बर्लिन ओलंपिक के लिए भारत और जर्मनी की टीम के बीच 15 अगस्त के दिन फाइनल मैच खेला गया । पहले अभ्यास मैच में हार चुकी भारतीय टीम के हौसले जितने पस्त थे उतने ही जर्मन टीम के हौसले बुलन्द । मैदान में उतरने से पूर्व भारतीय टीम लॉकर रूम में तिरंगे झण्डे को सलाम कर जीत के लिए प्रार्थना कर मैदान में चल पड़ी । मैच शुरू हुआ । हाफ टाइम तक हमारी टीम केवल एक गोल कर सकी । इसके बाद पूरे जोश के साथ आक्रामक मुद्रा में खेलना शुरू किया और आसानी से जर्मन टीम को 8-1 से हरा कर बर्लिन ओलम्पिक का स्वर्ण पदक भी अपनी झोली में डाल एक और रिकार्ड कायम किया । 
इस ओलम्पिक जीत के बाद ध्यानचन्द का ज्यादा समय “ सेना सेवा " में कटा, दूसरे विश्व युद्ध के बाद 1945 में ध्यानचन्द ने एक युवा टीम को तैयार करने का काम शुरू किया । 1947 में एशियन स्पोर्टस एसोसिएशन ने इण्डियन हॉकी फेडरेशन से गुजारिश की कि वह कुछ मैचों की श्रृंखला खेलने के लिए टीम भेजे जिसमें ध्यानचन्द के होने की शर्त रखी । ध्यानचन्द की कप्तानी में यह टीम 15 दिसम्बर को मोमबासा पहुंची । वहाँ नौ मैच खेले और सभी में विजयी रही ।

1948 में ईस्ट अफ्रीका से आने के बाद ध्यानचन्द ने धीरे - धीरे हॉकी से संन्यास लेना शुरू कर दिया । कुछ एग्जीबिशन मैचखेले । एक मैच 1948 की सम्भावित टीम से भी खेला जिसमें इनकी टीम 2-1 से हार गई । 
ध्यानचन्द का अंतिम मैच बंगाल के विरुद्ध खेला गया जो बिना हार जीत के फैसले के समाप्त हो गया । बंगाल एसोसिएशन ने ध्यान चन्द और उनके योगदान का सम्मान करने के लिए एक विशाल जन समारोह का आयोजन किया था ।मेजर ध्यानचन्द सेना से 1956 में रिटायर्ड हुए । इसी वर्ष उनको “ पद्मभूषण " से नवाजा गया । सेना से सेवा निवृत्ति के बाद लम्बे समय तक वे हॉकी के कोच रहे, 03 दिसम्बर , 1979 को मेजर ध्यानचन्द ने एम्स में आखरी श्वास ली ।

झांसी के हीरोज ग्राउण्ड में पंजाब रेजीमेण्ट की उपस्थिति में भारी जन समूह ने नम आँखों से हॉकी के जादूगर को आखिरी विदाई दी । ध्यानचन्द का पार्थिव शरीर पंच तत्व में समा गया परन्तु शेष है खेल भावना , उनका खेलप्रेम , राष्ट्र प्रेम , निष्ठा , स्वाभिमान और जादूगरी । कृतज्ञ राष्ट्र , 29 अगस्त ( उनका जन्म दिन ) , को उनके सम्मान में “ राष्ट्रीय खेल दिवस ' के रूप में मनाता है । 2012 में उनको जैम ऑफ इण्डिया अवार्ड प्रदान किया गया जिसको उनके पुत्र अशोक को सौंपा गया । यह अवार्ड जर्नलिस्ट एसोसिएशन ऑफ इण्डिया द्वारा दिया गया । मेजर ध्यानचन्द के नाम पर वर्ष 2002 से खेलों में विशेष योगदान के लिए ध्यान चन्द अवार्ड ' दिया जा रहा है ।

जो दिल्ली के नेशनल स्टेडियम का नाम बदलकर 2002 में ध्यानचन्द नेशनल स्टेडियम रखा गया है । लन्दन में जिमखाना क्लब के एस्ट्रोटर्फ पिच का नाम ध्यानचन्द रखा गया है । 25 जुलाई , 2015 को ब्रिटिश संसद के हाऊस ऑफ कॉमन्स ने मेजर ध्यानचन्द को “ भारत गौरव " के पुरस्कार से सम्मानित किया । पहले भी लन्दन ओलम्पिक 2012 के दौरान मेट्रो स्टेशन का नाम ध्यानचन्द रखा गया । कुल मिलाकर उन्होंने 1926 से 1948 तक 400 से अधिक गोलदागे । 

#कुछ रोचक घटनाएँ : 1936 के बर्लिन ओलम्पिक के दौरान जर्मनी से खेलते । गति से खेलने के लिए अपने स्पाइक शूज और स्टाकिंग्स निकाल दिये थे और नंगे पैर खेले ।

 एक समय की घटना है कि हॉकी खेलते हुए बहुत प्रयत्न करने पर भी ध्यानचन्द गोल नहीं दाग सके तो उन्होंने शिकायत की कि गोल पोस्ट को नापा जाए।नापने पर गलती पकड़ी गई । ऐसा बताया जाता है कि हिटलर ध्यानचन्द के खेल से इतना प्रभावित हुआ कि प्रशने ध्यानचन्द को प्रस्ताव दिया किअगर वह ( ध्यानचन्द ) जर्मन टीम में आना चाहता है तो उसको कर्नल की रैंक दे दी जायेगी परन्तु ध्यानचन्द ने प्रस्ताव ठुकरा दिया ।

1936 में जर्मनी के साथ एक अभ्यास मैच में जर्मन गोल कीपर ने ध्यानचन्द को टक्कर मार दी जिससे ध्यानचन्द का दांत टूट गया । चिकित्सा करा करा वापस लौटने पर अपने साथी खिलाड़ियों के साथ तय किया कि जर्मनी को सबक सिखाना चाहिए । इसके लिए गोल नहीं करने का निर्णय लिया । अब वे बॉल लेकर जर्मन गोल पोस्ट पर जाते वहाँ पर जाकर बिना गोल दागे वापस लौट आते । क्रिकेट के महान खिलाड़ी डॉन ब्राडमैन का 1935 में एडेलेड आस्ट्रेलिया में घ्यानचन्द से मिलना हुआ । उसने ध्यानचन्द की प्रशंसा करते हुए कहा कि वे ( ध्यान चन्द ) ऐसे गोल दागते हैं जैसे क्रिकेट में रनस्कोर किये जाते हैं । विएना ( ऑस्ट्रिया ) के निवासियों ने ध्यानचंद का एक स्टेच्यू स्थापित किया । जिसके चार हाथ और चारों हाथों में हॉकी स्टिक पकड़ी हुई थी ।

वे स्टेच्यू के मार्फत उनकी जादूगरी को प्रदशित कर रहे थे । नीदरलैण्ड में खेल अधिकारियों ने ध्यानचन्द की स्टिक तुड़वा कर देखा कि इसमें कहीं चुम्बक या और कोई डिवाइस तो फिट नहीं कर रखी है जो ध्यानचन्द का बॉल कण्ट्रोल करने में मदद करती हो । 

ऐसा भी बताते हैं कि ध्यानचन्द रेल की पटरी पर बॉल कण्ट्रोल करने के लिए तेज दौड़ते हुए अभ्यास करतेथे वो भी चन्द्रमा के प्रकाश में । 2014 में ध्यानचन्द ' भारतरत्न ' के सबसे श्रेष्ठ दावेदार थे । परन्तु उनके परिवार और खेल प्रेमियों को निराश होना पड़ा ।
आशा है देर है अन्धेर नहीं और विश्व के हॉकी प्रेमियों का स्वप्न पूरा होगा । आज दिनांक 06अगस्त 2021 को भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी के भारत की जनता जनभावना के अनुरूप देश के सबसे बडे खेल पुरूस्कार "राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार" के स्थान पर "मेजर ध्यानचंद खेल रत्न पुरस्कार" की घोषणा की है। 

 रिछपालसिह 

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मंगलवार, 10 अगस्त 2021

ओलंपिक और विश्वगुरू

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टोक्यो में चल रहे ओलंपिक खेलों की मेडल टैली में कल शामतक भारत अंडर 50 में भी नहीं था! फिर सूबेदार नीरज चोपड़ा ने पूरे दम के साथ भाला फेंका और हम 67वें पोजिशन से 20 अंकों की उछाल लेकर सीधे 47वें पोजिशन पर आ गए!

एक गोल्ड मैडल और 20 अंकों की उछाल!!!

138 करोड़ की आबादी वाला देश कल से सीना फुलाए घूम रहा है! क्रेडिट लेने देने की होड़ सी मची हुई है! हर किसी में सूबेदार साहब से जुड़ने की ललक दिखाई पड़ रही है! क्योंकि उन्होंने गोल्ड दिलाया है!

138 करोड़ की आबादी में मात्र एक स्वर्ण पदक!!  क्या ये गर्व का विषय है?

पदक तालिका पर नजर डालेंगें तो आप पाएंगे कि हम कुल 14 ओलंपिक पदकों (स्वर्ण, रजत और कांस्य) के साथ 47वें स्थान पर हैं!

 ....और जो देश प्रथम (चीन-38 स्वर्ण पदक)  द्वितीय (USA-36 स्वर्ण पदक व तृतीय स्थान (जापान-27 स्वर्ण पदक) पर हैं उनके सिर्फ स्वर्ण पदकों की संख्या हमसे कुल पदकों की संख्या से लगभग दो गुनी या तिगुनी है!

शीर्ष पर बढ़त बनाये हुए इन देशों के साथ ऐसा नहीं है कि वे सिर्फ खेलों में ही अच्छा कर कर रहे हैं और बाकी क्षेत्रों में फिसड्डी हैं! 

इनकी विकास दर, औद्यिगिक तकनीक, रेलवे, हाईवे,  सैन्यशक्ति ....यहाँ तक कि शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं- कुछ भी उठा लीजिये! ये देश इन क्षेत्रों में भी हमसे कई गुना बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं!

दुनिया के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय इन्ही के पास हैं!  पूरी दुनिया को बेहतर फाइटर जेट, पनडुब्बी और हवाई जहाज से मेट्रोरेल तकनीक, कंप्यूटर तकनीक और स्पेस तकनीक यही लोग मुहैया करा रहे हैं!
...और खेलों में भी इनका कोई सानी नहीं है!

इसी को सर्वांगीण विकास कहते हैं!

हम तो इनके पासंग में भी नहीं हैं! सिर्फ जनसंख्या के मामले में बढ़त बनाये हुए हैं हम!

इतने बड़े फेल्योर का जिम्मेदार किसी एक को नहीं ठहराया जा सकता! हम सब इस हमाम में नँगे हैं!

हमने कभी इन मुद्दों पर बात ही नहीं की! हम नाली, खड़ंजा, PCC रोड, वृद्धावस्था पेंशन, बेरोजगारी भत्ता, आधार, पैन, जनधन, जातिप्रमाण पत्र, आय प्रमाणपत्र, मिड डे मील में मिलने वाला अंडा, आंगनवाड़ी, भोज, भण्डारा, बोलबम, दरगाह, हिन्दू, मुसलमान, भगवा, हरा- इन्ही सब में उलझकर रह गए!

जिसका नतीजा है कि हमारी आजादी के महज दो साल पहले दो-दो परमाणु हमले झेल चुका देश आज न सिर्फ ओलंपिक की मेजबानी कर बल्कि अपनी सरजमीं पर पदक भी जीत रहा है!

...और आजादी के 74 साल बाद हमारे देश की 80 करोड़ जनता 5 किलो गेंहू के लिए लाइनों में खड़ी है! ...और ख़ुशी ख़ुशी खड़ी है! 

क्योंकि हमने न खेलों को सिरियसली लिया और न ही पढाई लिखाई और तकनीक को! जिन्होंने सिरियसली लिया वे आज हर जगह अच्छा कर रहे हैं!

इस ओलंपिक समापन के बाद हमारे खिलाडी वापस आएंगे! हर राज्य अपनी (बेशर्मी की) क्षमता के मुताबिक उनको पुरस्कृत करेगा! माननीय लोग उनके साथ फोटो खिंचवायेंगे! कुछ मनगढ़ंत कहानियां रची जाएँगी! बैनर पोस्टर बनेगा....और कुछ दिनों बाद हम सब फिर से उसी हिन्दू मुसलमान, गौरी गणेश, मुल्ला मौलवी  में उलझ जायेंगे!

लेकिन याद रखिए! खिलाड़ियों के प्रदर्शन के बदले में माननीयों द्वारा बांटे जाने वाले कैश, फ्लैट और नौकरी तथा देशवासियों द्वारा फील किया गया गर्व- ये सब दरअसल अपनी अपनी नाकामी छिपाने के तरीके हैं! इससे ज्यादा कुछ नहीं है!

...और जब तक ऐसा चलता रहेगा, विश्वगुरु सिर्फ ओलंपिक ही नहीं, हर प्रतिस्पर्धा में मेडल के लिए तरसते रहेंगे! Sabhar Facebook Wall hidu sabya samaj

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शनिवार, 7 अगस्त 2021

कार्टूनिस्ट प्राण

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चाचा चौधरी,साबू ,बिल्लू , पिंकी और रमन के अलावा मेरे जैसे अनेक जनों का ,अपने हंसाने व गुदगुदाने वाले  किरदारों के द्वारा बचपन को एक अलग ही रंगीन (रंग-बिरंगे कॉमिक्स के चित्रों द्वारा) बनाने वाले श्री प्राण कुमार शर्मा जी ,जो की विश्व भर में "कार्टूनिस्ट प्राण" के नाम से प्रसिद्ध है | आपके जैसे अनेक आर्टिस्टों व कार्टूनिस्टों ने हमें अपने अपने किरदारों के द्वारा हमारा मनोरंजन किया हैं लेकिन आपका स्थान कॉमिक्स जगत में अद्वितीय रहा हैं | आप आज हमारे बीच में नहीं है , लेकिन आपके किरदारों के द्वारा आप हमेशा से हमारे बीच मौजूद रहेंगे , किसी कमरे की किसी अलमारी में आपके किरदार सदा साथ रहेंगे 

मेरे बचपन को एक अलग आयाम देने के लिए शुक्रिया 
श्री प्राण कुमार शर्मा जी " कार्टूनिस्ट प्राण" को उनकी पुण्यतिथि पर शत् शत् नमन ❤

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बुधवार, 4 अगस्त 2021

टोक्यो ओलंपिक

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टोक्यो ओलंपिक में भारतीय पुरुष हॉकी टीम द्वारा कांस्य पदक जीतने पर सम्पूर्ण टीम को हार्दिक बधाई।
भारतीय हॉकी टीम ने नया इतिहास रचकर देशवासियों को गौरवान्वित किया है।
#Hockey 
#Olympic

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टोक्यो ओलम्पिक की महान घटना

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।।🚩 -
#टोक्यो_ओलम्पिक_की_महान_घटना 

केनिया के सुप्रसिद्ध धावक अबेल मुताई आलंपिक प्रतियोगिता मे अंतिम राउंड मे दौडते वक्त अंतिम लाइन से कुछ मिटर ही दूर थे और उनके सभी प्रतिस्पर्धी पीछे थे । अबेल ने स्वर्ण पदक लगभग जीत ही लिया था,इतनेमें कुछ गलतफहमी के कारण वे अंतिम रेखा समझकर एक मिटर पहले ही रुक गए। उनके पीछे आनेवाले #स्पेन_के_इव्हान फर्नांडिस के ध्यान मे आया कि अंतिम रेखा समझ नहीं आने की वजह से वह पहले ही रुक गए ।उसने चिल्लाकर अबेल को आगे जाने के लिए कहा लेकिन स्पेनिश नहीं समझने की वजह से वह नही हिला ।आखिर मे इव्हान ने उसे धकेलकर अंतिम रेखा तक पहूंचा दिया ।इस कारण अबेल का प्रथम तथा इव्हान का दूसरा क्रमांक आया ।पत्रकारों ने इव्हान से पूछा "तुमने ऐसा क्यों किया ?मौका मिलने के बावजूद तुमने प्रथम क्रमांक क्यों गंवाया ?" इव्हान ने कहा "मेरा सपना है कि #हम_एक_दिन_ऐसी_मानवजाति_बनाएंगे_जो_एक दूसरे को मदद करेगी ना कि उसकी भूल से फायदा उठाएगी।और मैने प्रथम क्रमांक नहीं गंवाया।" पत्रकार ने फिर कहा "लेकिन तुमने केनियन प्रतिस्पर्धी को धकेलकर आगे लाया ।" इसपर इव्हान ने कहा "वह प्रथम था ही ।यह प्रतियोगिता उसी की थी।" पत्रकार ने फिर कहा " लेकिन तुम स्वर्ण पदक जीत सकते थे" "उस जीतने का क्या अर्थ होता । मेरे पदक को सम्मान मिलता? मेरी मां ने मुझे क्या कहा होता?संस्कार एक पीढी से दूसरी पीढी तक आगे जाते रहते है ।मैने अगली पीढी को क्या दिया होता? दूसरों की दुर्बलता या अज्ञान का फायदा न उठाते हुए उनको मदद करने की सीख मेरी मां ने मुझे दी है ।" #TokyoOlympics2021 sabhar devendra Kumar Sinha Facebook wall

                     ।।🇮🇳भारत माता की जय🇮🇳।।

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शिखा बन्धन (चोटी) रखने का महत्त्व

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शिखा का महत्त्व विदेशी जान गए हिन्दू भूल गए।हिन्दू धर्म का छोटे से छोटा सिध्दांत,छोटी-से-छोटी बात भी अपनी जगह पूर्ण और कल्याणकारी हैं। छोटी सी शिखा अर्थात् चोटी भी कल्याण, विकास का साधन बनकर अपनी पूर्णता व आवश्यकता को दर्शाती हैं। शिखा का त्याग करना मानो अपने कल्याणका त्याग करना हैं। जैसे घङी के छोटे पुर्जे कीजगह बडा पुर्जा काम नहीं कर सकता क्योंकि भले वह छोटा हैं परन्तु उसकी अपनी महत्ता है। 

शिखा न रखने से हम जिस लाभ से वंचित रह जाते हैं, उसकी पूर्ति अन्य किसी साधन से नहीं हो सकती।

'हरिवंश पुराण' में एक कथा आती है हैहय व तालजंघ वंश के राजाओं ने शक, यवन, काम्बोज पारद आदि राजाओं को साथ लेकर राजा बाहू का राज्य छीन लिया। राजा बाहु अपनी पत्नी के साथ वन में चला गया। वहाँ राजा की मृत्यु हो गयी। महर्षिऔर्व ने उसकी गर्भवती पत्नी की रक्षा की और उसे अपने आश्रम में ले आये। वहाँ उसने एक पुत्र को जन्म दिया, जो आगे चलकर राजा सगर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। राजासगर ने महर्षि और्व से शस्त्र और शास्त्र विद्या सीखीं। समय पाकर राजा सगरने हैहयों को मार डाला और फिर शक, यवन, काम्बोज, पारद, आदि राजाओं को भी मारने का निश्चय किया। ये शक, यवन आदि राजा महर्षि वसिष्ठ की शरण में चले गये। महर्षि वसिष्ठ ने उन्हें कुछ शर्तों पर उन्हें अभयदान दे दिया। और सगर को आज्ञा दी कि वे उनको न मारे। राजा सगर अपनी प्रतिज्ञा भी नहीं छोङ सकते थे और महर्षि वसिष्ठ जी की आज्ञा भी नहीं टाल सकते थे। अत: उन्होंने उन राजाओं का सिर शिखा सहित मुँडवाकर उनकों छोङ दिया। 

प्राचीन काल में किसीकी शिखा काट देना मृत्युदण्ड के समान माना जाता था। बङे दुख की बात हैं कि आज हिन्दु लोग अपने हाथों से अपनी शिखा काट रहे है। यह गुलामी की पहचान हैं। 
    
शिखा हिन्दुत्व की पहचान हैं। यह आपके धर्म और संस्कृतिकी रक्षक हैं। शिखा के विशेष महत्व के कारण ही हिन्दुओं ने यवन शासन के दौरान अपनी शिखा की रक्षा के लिए सिर कटवा दिये पर शिखा नहीं कटवायी।

डा॰ हाय्वमन कहते है ''मैने कई वर्ष भारत में रहकर भारतीय संस्कृति का अध्ययन किया हैं, यहाँ के निवासी बहुत काल से चोटी रखते हैं , जिसका वर्णन वेदों में भी मिलता हैं। दक्षिण भारत में तो आधे सिर पर 'गोखुर' के समान चोटी रखते हैं । उनकी बुध्दि की विलक्षणता देखकर मैं अत्यंत प्रभावित हुआ हुँ। अवश्य ही बौध्दिक विकास में चोटी बड़ी सहायता देती हैं। सिर पर चोटी रखना बढा लाभदायक हैं। मेरा तो हिन्दु धर्म में अगाध विश्वास हैं और मैं चोटी रखने का कायल हो गया हूँ । 

"प्रसिद्ध वैज्ञानिक डा॰ आई॰ ई क्लार्क एम॰ डी ने कहा हैं " मैंने जबसे इस विज्ञान की खोज की हैं तब से मुझे विश्वास हो गया हैं कि हिन्दुओं का हर एक नियम विज्ञान से परिपूर्ण हैं। चोटी रखना हिन्दू धर्म ही नहीं, सुषुम्ना के केद्रों की रक्षा के लिये ऋषि-मुनियों की खोज का विलक्षण चमत्कार हैं।

"इसी प्रकार पाश्चात्य विद्वान मि॰ अर्ल थामस लिखते हैं की "सुषुम्ना की रक्षा हिन्दु लोग चोटी रखकर करते हैं जबकि अन्य देशों में लोग सिर पर लम्बे बाल रखकर या हैट पहनकर करते हैं। इन सब में चोटी रखना सबसे लाभकारी हैं। किसी भी प्रकार से सुषुम्ना की रक्षा करना जरुरी हैं।

"वास्तव में मानव-शरीर को प्रकृति ने इतना सबल बनाया हैं की वह बड़े से बड़े आघात को भी सहन करके रह जाता हैं परन्तु शरीर में कुछ ऐसे भी स्थान हैं जिन पर आघात होने से मनुष्य की तत्काल मृत्यु हो सकती हैं। इन्हें मर्म-स्थान कहाजाता हैं। 

शिखा के अधोभाग में भी मर्म-स्थान होता हैं, जिसके लिये सुश्रुताचार्य ने लिखा है मस्तकाभ्यन्तरोपरिष्टात् शिरासन्धि सन्निपातो।

रोमावर्तोऽधिपतिस्तत्रपि सद्यो मरणम्।
अर्थात् मस्तक के भीतर ऊपर जहाँ बालों का आवर्त(भँवर) होता हैं, वहाँ संपूर्ण नाङियों व संधियों का मेल हैं, उसे 'अधिपतिमर्म' कहा जाता हैं।यहाँ चोट लगने से तत्काल मृत्यु हो जाती हैं(सुश्रुत संहिता शारीरस्थानम् : ६.२८)

सुषुम्ना के मूल स्थान को 'मस्तुलिंग' कहते हैं। मस्तिष्क के साथ ज्ञानेन्द्रियों कान, नाक, जीभ, आँख आदि का संबंध हैं और कामेन्द्रियों - हाथ, पैर, गुदा, इन्द्रिय आदि का संबंध मस्तुलिंग से हैं मस्तिष्क व मस्तुलिंग जितने सामर्थ्यवान होते हैं उतनी ही ज्ञानेन्द्रियों और कामेन्द्रियों - की शक्ति बढती हैं। मस्तिष्क ठंडक चाहता हैं और मस्तुलिंग गर्मी मस्तिष्क को ठंडक पहुँचाने के लिये क्षौर कर्म करवाना और मस्तुलिंग को गर्मी पहुँचाने के लिये गोखुरके परिमाण के बाल रखना आवश्यक होता है।

बालकुचालक हैं, अत: चोटी के लम्बे बाल बाहर की अनावश्यक गर्मी या ठंडक से मस्तुलिंग की रक्षा करते हैं। 

शिखा रखने के अन्य निम्न लाभ बताये गये हैं।
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१ शिखा रखने तथा इसके नियमों का यथावत् पालन करने से सद्‌बुद्धि , सद्‌विचारादि की प्राप्ति होती हैं।

२ आत्मशक्ति प्रबल बनती हैं।

३ मनुष्य धार्मिक , सात्विक व संयमी बना रहता हैं।

४ लौकिक - पारलौकिक कार्यों मे सफलता मिलती हैं।

५सभी देवी देवता मनुष्य की रक्षा करते हैं।

६ सुषुम्ना रक्षा से मनुष्य स्वस्थ, बलिष्ठ, तेजस्वी और दीर्घायु होता हैं।

७ नेत्र्ज्योति सुरक्षित रहती हैं।

इस प्रकार धार्मिक, सांस्कृतिक, वैज्ञानिक सभी दृष्टियों से शिखा की महत्ता स्पष्ट होती हैं। परंतु आज हिन्दू लोग पाश्चात्योंके चक्कर में पड़कर फैशनेबल दिखने की होड़ में शिखा नहीं रखते व अपने ही हाथों अपनी संस्कृति का त्याग कर डालते हैं।

लोग हँसी उड़ाये, पागल कहे तो सब सह लो पर धर्म का त्याग मत करो। मनुष्य मात्र का कल्याण चाहने वाली अपनी हिन्दू संस्कृति नष्ट हो रही हैं। हिन्दु स्वयं ही अपनी संस्कृति का नाश करेगा तो रक्षा कौन करेगा।

वेद में भी शिखा रखने का विधान कई स्थानों पर मिलता है,देखिये।

शिखिभ्यः स्वाहा (अथर्ववेद १९-२२-१५)

अर्थ👉 चोटी धारण करने वालों का कल्याण हो।

यशसेश्रियै शिखा।-(यजु० १९-९२)
अर्थ 👉 यश और लक्ष्मी की प्राप्ति के लिए सिर पर शिखा धारण करें।

याज्ञिकैंगौर्दांणि मार्जनि गोक्षुर्वच्च शिखा। (यजुर्वेदीय कठशाखा)

अर्थात्👉  सिर पर यज्ञाधिकार प्राप्त को गौ के खुर के बराबर(गाय के जन्में बछड़े के खुर के बराबर) स्थान में चोटी रखनी चाहिये।

केशानां शेष करणं शिखास्थापनं।
केश शेष करणम् इति मंगल हेतोः ।। sabhar dev sharma Facebook wall
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बद्रीनाथ धाम का ब्रह्मकपाल तीर्थ

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ब्रह्मकपाल तीर्थ का महत्त्व
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बद्रीनाथ धाम का ब्रह्मकपाल तीर्थ गया से आठ गुना फलदायी है।

पिंड दान के लिए भारतवर्ष क्या दुनियाँ भर से हिंदू  प्रसिद्ध गया पहुँचते हैं, लेकिन *एक तीर्थ ऐसा भी है जहाँ पर किया पिंडदान गया से भी आठ गुणा फलदायी है।*
चारो धामों में प्रमुख उत्तराखंड के बदरीनाथ के पास स्थित ब्रह्माकपाल के बारे में मान्यता है कि यहाँ पर पिंडदान करने से पितरों की आत्मा को नरकलोक से मुक्ति मिल जाती है। स्कंद पुराण में ब्रह्मकपाल को गया से आठ गुणा अधिक फलदायी पितरकारक तीर्थ कहा गया है।
सृष्टि की उत्पत्ति के समय जब तीन देवों में ब्रह्मा जी, अपने द्वारा उत्तपत्तित कन्या के रुप पर मोहित हो गए थे, उस समय भोलेनाथ ने गुस्से में आकर ब्रह्मा के सिरों में से एक को त्रिशूल के काट दिया था। 
इस प्रकार शिव पर ब्रह्म हत्या का पाप लग गया था और वह कटा हुआ सिर शिवजी के हाथ पर चिपक गया था। ब्रह्मा की हत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिए जब भोलेनाथ पूरी पृथ्वी लोक के भ्रमण पर गए परन्तु कहीं भी ब्रह्म हत्या से मुक्ति नही मिली।
भृमण करते करते शिवजी बदरीनाथ पहुँचे वहाँ पर ब्रह्मकपाल शिला पर शिवजी के हाथ से ब्रह्माजी का सिर जमीन पर गिर गया और शिवजी को ब्रह्म हत्या से मुक्ति मिली। तभी से यह स्थान ब्रह्मकपाल के रुप में प्रसिद्ध हुआ। ब्रह्मकपाल शिला के नीचे ही ब्रह्मकुण्ड है जहाँ पर ब्रह्मा जी ने तपस्या की थी।
शिवजी ने ब्रह्महत्या से मुक्त होने पर इस स्थान को वरदान दिया कि यहाँ पर जो भी व्यक्ति श्राद्ध करेगा उसे प्रेत योनी में नहीं जाना पड़ेगा एवं उनके कई पीढ़ियों के पितरों को मुक्ति मिल जाएगी। पुराणों में बताया गया है कि उत्तराखंड की धरती पर भगवान बद्रीनाथ के चरणों में बसा है ब्रह्म कपाल। अलकनंदा नदी ब्रह्मकपाल को पवित्र करती हुई यहाँ से प्रवाहित होती है। इस स्थान के विषय में मान्यता है कि इस स्थान पर जिस व्यक्ति का श्राद्ध कर्म होता है उसे प्रेत योनी से तत्काल मुक्ति मिल जाती है और भगवान विष्णु के परमधाम में उसे स्थान प्राप्त हो जाता है। जिस व्यक्ति की अकाल मृत्यु होती है उसकी आत्मा व्याकुल होकर भटकती रहती है। ब्रह्म कपाल में अकाल मृत्यु प्राप्त व्यक्ति का श्राद्ध करने से आत्मा को तत्काल शांति और प्रेत योनी से मुक्ति मिल जाती है।
भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत युद्ध के समाप्त होने के बाद पाण्डवों को ब्रह्मकपाल में जाकर पितरों का श्राद्ध करने का निर्देश दिया था। इसलिये भगवान श्रीकृष्ण कीआज्ञा मानकर पाण्डव बद्रीनाथ की शरण में गए और ब्रह्मकपाल तीर्थ में पितरों एवं युद्ध में मारे गए सभी लोगों के लिए श्राद्ध किया। पुराणों में बताया गया है कि उत्तराखंड की भूमि पर बद्रीनाथ धाम में बसा है ब्रह्मकपाल तीर्थ, जिसको अलकनंदा नदी पवित्र करती हुई प्रवाहित होती है। इस स्थान के विषय में मान्यता है कि इस स्थान पर जिस व्यक्ति का श्राद्ध कर्म होता है उसे प्रेत योनि से तत्काल मुक्ति मिल जाती है और वह भगवान विष्णु के परमधाम में स्थान प्राप्त करता है। जिस व्यक्ति की अकाल मृत्यु होती है और उसकी आत्मा व्याकुल होकर भटकती रहती है उस व्यक्ति का श्राद्ध ब्रह्मकपाल तीर्थ पर करने से उस की आत्मा को तत्काल शान्ति मिलती है और प्रेत योनि से मुक्ति मिल जाती है।
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मंगलवार, 3 अगस्त 2021

दुनिया कितनी ख़ूबसूरत है ओलंपिक से सीखें

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दुनिया कितनी ख़ूबसूरत है ओलंपिक से सीखें

केन्या  के सुप्रसिद्ध धावक अबेल मुताई ओलंपिक प्रतियोगिता के अंतिम राउंड में दौड़ते वक्त अंतिम लाइन से एक मीटर दूर रह गये थे। उनके सभी प्रतिस्पर्धी पीछे थे। अबेल ने स्वर्ण पदक लगभग जीत ही लिया था, इतने में कुछ गलतफहमी के कारण वे अंतिम रेखा समझकर एक मीटर पहले ही रुक गए। उनके पीछे आने वाले स्पेन के इव्हान फर्नांडिस ने देखा अंतिम रेखा समझ नहीं आने की वजह से वह पहले ही रुक गए। उन्होंने  चिल्लाकर अबेल को आगे जाने के लिए कहा। लेकिन स्पेनिश नहीं समझने की वजह से वह नहीं हिले।आखिर में इव्हान ने उसे धकेलकर अंतिम रेखा तक पहुंचा दिया। इस कारण अबेल का प्रथम तथा इव्हान का दूसरा स्थान आया। 
पत्रकारों ने इव्हान से पूछा, तुमने ऐसा क्यों किया ? मौका मिलने के बावजूद तुमने प्रथम क्रमांक क्यों गंवाया ?
इव्हान ने कहा मेरा सपना है हम एक  दिन ऐसी मानवजाति बनाएंगे जो एक दूसरे को मदद करेगी न कि उसकी भूल से फायदा उठाएगी। और मैंने प्रथम स्थान नहीं गंवाया।" 
पत्रकार ने फिर कहा लेकिन तुमने केनियन प्रतिस्पर्धी को धकेलकर आगे लाया।
इसपर इव्हान ने कहा वह प्रथम था ही। यह प्रतियोगिता उसी की थी।
पत्रकार ने फिर कहा, लेकिन तुम स्वर्ण पदक जीत सकते थे।
इव्हान ने कहा, उस जीतने का क्या अर्थ होता। मेरे पदक को सम्मान मिलता ? मेरी मां ने फिर मुझे क्या कहा होता ? 
संस्कार एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक आगे जाते हैं। मैंने अगली पीढ़ी को क्या दिया होता ? दूसरों की दुर्बलता या अज्ञान का फायदा न उठाते हुए उनको मदद करने की सीख मेरी मां ने मुझे दी है।

...और यह दूसरी कहानी

टोक्यो ओलंपिक में पुरुषों की हाई जम्प फाइनल में इटली के जियानमारको ताम्बरी का सामना क़तर के मुताज़ इसा बर्शिम से हुआ। दोनों ने 2.37 मीटर की छलांग लगाई और बराबरी पर रहे। उसके बाद ओलंपिक अधिकारियों ने उनमें से प्रत्येक को तीन और प्रयास दिए, लेकिन वे 2.37 मीटर से अधिक तक नहीं पहुंच पाए।
उन दोनों को एक और प्रयास दिया गया, लेकिन उसी वक़्त टाम्पबेरी पैर में गंभीर चोट के कारण अंतिम प्रयास से पीछे हट गए। यह वह क्षण था जब मुताज़ बरशिम के सामने कोई दूसरा विरोधी नहीं था औऱ उस पल वह आसानी से अकेले सोने के क़रीब पहुंच सकते थे!

लेकिन बर्शिम के दिमाग में कुछ घूम रहा था औऱ फ़िर कुछ सोचकर उसने एक अधिकारी से पूछा, "अगर मैं भी अंतिम प्रयास से पीछे हट जाऊं तो क्या हम दोनों के बीच गोल्ड मैडल साझा किया जा सकता है?" 

कुछ देर बाद एक आधिकारी जाँच कर पुष्टि करता है और कहता है "हाँ बेशक गोल्ड आप दोनों के बीच साझा किया जाएगा"। 

बर्शिम के पास और ज्यादा सोचने के लिए कुछ नहीं था । उसने आखिरी प्रयास से हटने की घोषणा की।

यह देख इटली का प्रतिद्वन्दी ताम्बरी दौड़ा और मुताज़ बरसीम को गले लगा कर चिल्लाया ! दोनों भावुक होकर रोने लगे ।

लोगों ने जो देखा वह खेलों में प्यार का एक बड़ा हिस्सा था जो दिलों को छूता है। यह अवर्णनीय खेल भावना को प्रकट करता है जो धर्मों, रंगों और सीमाओं को अप्रासंगिक बना देता है !!!

इसी दुनिया मे लोग सुख दुख साझा करने से डरते है और कुछ महान लोग गोल्ड मेडल तक साझा कर रहे हैं।
इंसानका किरदार किसी भी मैडल से बड़ा है। sabhar mahesh pratap singh zonal coordinator paprika.com

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