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बुधवार, 24 मार्च 2021

रक्ष संस्कृति

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{{{ॐ}}}

                                     

वाल्मीकि रामायण में वर्णित रावण चरित्र एवं घटनाक्रमों का एक  गूढ़ आध्यात्मिक रहस्य भी है, जिसका सम्बन्ध "तत्त्वज्ञान" की ब्रह्मविधा से है। पौराणिक विवरणों से ज्ञात होता है कि जल प्रलय से पूर्व विश्व का मानचित्र और इसका भौगोलिक परिवेश भिन्न स्वरूप नें था। इस काल में  विश्व में दो संस्कृतियां मुख्य रूप से पल्लवित- पुष्पित हो रही थी, इनमे से एक वैदिक संस्कृति थी व दुसरी शैव संस्कृति थी ।
वैदिक संस्कृति नागरी संस्कृति थी और यह सपाट मैदानों की संस्कृति थी, जो नदियों के तटों पर पल्लवित - पुष्पित हो रही थी । यह कृषि प्रधान संस्कृति थी पशु पालन और गृहउधोगो का व्यवसाय होता था । इनके पास उत्कृष्ट विज्ञान था, जो इस प्रकृति के ऊर्जा जगत से सम्बन्ध रखता था। 
इसके कुल नायक थे विष्णु । यह एक आध्यात्मिक शक्ति थी, जिसका सम्बन्ध इनके विज्ञान से था ,जिसे ये ब्रह्म विधा कहते थे । इसके विवरण अत्यन्त गोपनीय रखे जाते थे । इस विज्ञान के सुत्रों पर ही इनके देवता और यज्ञ आधारित थे। ये देवताओं की शक्तियों को विभिन्न यज्ञों के माध्यम से प्रयुक्त करते थे। ब्रह्मविधा" के सुत्रों पर इन्होंने कई प्रकार के अस्त्र शस्त्र विकसित किये हुए थे। ये अपने कुलनायक विष्णु के नाम से सम्बोधित करते   थे। 
शैव- संस्कृति इसके समानांतर मे पल्लवित हो रही। यह संस्कृति पंहाडो एवं जंगलो मे विकसित हो रही थी । ये लोग जंगल के फल फूल व कंद मूल आदि का प्रयोग करते थे, और प्रवृत्ति से मांसाहारी थे। इनके अनेक समुदाय और सम्प्रदाय थे। सभी के रीति रिवाज पूजा साधना आदि अलग अलग प्रकार की मान्यताओं एवं विधि- विधान प्रचलित थे।
शिवलिंगो,शक्तिपीठो,मातृकुल, पिण्डियों,आदि के ये उपासक कई समुदाय मे विभक्त थे, परन्तु इन सबके मध्य मे उत्कृष्ट विज्ञान के नियम कार्य कर रहे थे। यह था शैवमार्गी विज्ञान , जो वैदिक संस्कृति के ही विज्ञान का दुसरा रूप था। इनकी समस्त साधनाएँ विधि- विधान भिन्न प्रकार के थे । इन्हें कई प्रकट की चमत्कारिक शक्तियों का ज्ञान था, जिसके कारण इन्हें मायावी कहा जाता था।
राक्षस, यक्ष, गन्धर्व, किन्नर, आदि इसी संस्कृति से सम्बन्धित थे ।इनमे राक्षसों का समुदाय अधिक शक्तिशाली एवं विकसित था। ये प्रधानतया शिवलिंग उपासक थे, किन्तु इनमे  पिण्डियो, शक्तिपीठो एवं देवियो की भी पूजा उपासना होती थी ।मांस, मदिरा, बलि, नारीपूजा, कन्या पूजा, आदि विधान सर्वमान्य थे।
ये मातृपूजक थे और शिवलिंग द्वारा भी प्रकृति की ऋणात्मक सत्ता शक्तियों की ही साधना किया करते थे । ये जंगलो पहाडों मे रहते थे और इनका प्रमुख आहार मांस ही थी। बलि का अर्थ वही थी, जैसे कोई भोजन से पुर्व अपने आहार का भोग अपने इष्ट पर लगाता है।
राक्षसों के इन आचरणों को वैदिक संस्कृति निष्कृष्ट अधम कृत्य मानकर इनसे घृणा करती थी। यह घी इनके आचरण और हिंसात्मक प्रवृत्ति के कारण ही थी। ज्ञान विज्ञान की दृष्टि से इनके तन्त्र और शैव मार्ग की न्याय से उसे कोई विरोध नही था; क्यो की वैदिक ऋषि यह जानते थे ,कि दोनो विज्ञान एक ही है, केवल मार्ग मे अन्तर है इसी कारण से उनका इनसे युद्ध होता रहता था।
पुराणों से जो विवरण प्राप्त होते है, उनके अनुसार प्राकृतिक संसाधनों जल एवं वन की रक्षा करने वालो को #_रक्ष और इनकी पूजा करने वालो को#_यक्ष कहा जाता था , किन्तु ऐसा प्रतीक होता है कि इन सम्बोधनों की उत्पति आँखों के वर्ण के अनुसार हुई हो रक्ष,यक्ष, गन्धर्व, वानर, आदि प्राकृतिक संसाधनों मे विकसित होने वाली जातियां थी। जिनका नामाकरण उनके गुण और प्रवृत्ति के अनुसार वैदिक संस्कृति ने किया था। शर और आत्मा की रक्षा करने के सूत्र के कारण इन्हें #_रक्ष कहा जाता है ।{{{ॐ}}}

                                                        #_रक्ष-_संस्कृति_ 

वाल्मीकि रामायण में वर्णित रावण चरित्र एवं घटनाक्रमों का एक  गूढ़ आध्यात्मिक रहस्य भी है, जिसका सम्बन्ध "तत्त्वज्ञान" की ब्रह्मविधा से है। पौराणिक विवरणों से ज्ञात होता है कि जल प्रलय से पूर्व विश्व का मानचित्र और इसका भौगोलिक परिवेश भिन्न स्वरूप नें था। इस काल में  विश्व में दो संस्कृतियां मुख्य रूप से पल्लवित- पुष्पित हो रही थी, इनमे से एक वैदिक संस्कृति थी व दुसरी शैव संस्कृति थी ।
वैदिक संस्कृति नागरी संस्कृति थी और यह सपाट मैदानों की संस्कृति थी, जो नदियों के तटों पर पल्लवित - पुष्पित हो रही थी । यह कृषि प्रधान संस्कृति थी पशु पालन और गृहउधोगो का व्यवसाय होता था । इनके पास उत्कृष्ट विज्ञान था, जो इस प्रकृति के ऊर्जा जगत से सम्बन्ध रखता था। 
इसके कुल नायक थे विष्णु । यह एक आध्यात्मिक शक्ति थी, जिसका सम्बन्ध इनके विज्ञान से था ,जिसे ये ब्रह्म विधा कहते थे । इसके विवरण अत्यन्त गोपनीय रखे जाते थे । इस विज्ञान के सुत्रों पर ही इनके देवता और यज्ञ आधारित थे। ये देवताओं की शक्तियों को विभिन्न यज्ञों के माध्यम से प्रयुक्त करते थे। ब्रह्मविधा" के सुत्रों पर इन्होंने कई प्रकार के अस्त्र शस्त्र विकसित किये हुए थे। ये अपने कुलनायक विष्णु के नाम से सम्बोधित करते   थे। 
शैव- संस्कृति इसके समानांतर मे पल्लवित हो रही। यह संस्कृति पंहाडो एवं जंगलो मे विकसित हो रही थी । ये लोग जंगल के फल फूल व कंद मूल आदि का प्रयोग करते थे, और प्रवृत्ति से मांसाहारी थे। इनके अनेक समुदाय और सम्प्रदाय थे। सभी के रीति रिवाज पूजा साधना आदि अलग अलग प्रकार की मान्यताओं एवं विधि- विधान प्रचलित थे।
शिवलिंगो,शक्तिपीठो,मातृकुल, पिण्डियों,आदि के ये उपासक कई समुदाय मे विभक्त थे, परन्तु इन सबके मध्य मे उत्कृष्ट विज्ञान के नियम कार्य कर रहे थे। यह था शैवमार्गी विज्ञान , जो वैदिक संस्कृति के ही विज्ञान का दुसरा रूप था। इनकी समस्त साधनाएँ विधि- विधान भिन्न प्रकार के थे । इन्हें कई प्रकट की चमत्कारिक शक्तियों का ज्ञान था, जिसके कारण इन्हें मायावी कहा जाता था।
राक्षस, यक्ष, गन्धर्व, किन्नर, आदि इसी संस्कृति से सम्बन्धित थे ।इनमे राक्षसों का समुदाय अधिक शक्तिशाली एवं विकसित था। ये प्रधानतया शिवलिंग उपासक थे, किन्तु इनमे  पिण्डियो, शक्तिपीठो एवं देवियो की भी पूजा उपासना होती थी ।मांस, मदिरा, बलि, नारीपूजा, कन्या पूजा, आदि विधान सर्वमान्य थे।
ये मातृपूजक थे और शिवलिंग द्वारा भी प्रकृति की ऋणात्मक सत्ता शक्तियों की ही साधना किया करते थे । ये जंगलो पहाडों मे रहते थे और इनका प्रमुख आहार मांस ही थी। बलि का अर्थ वही थी, जैसे कोई भोजन से पुर्व अपने आहार का भोग अपने इष्ट पर लगाता है।
राक्षसों के इन आचरणों को वैदिक संस्कृति निष्कृष्ट अधम कृत्य मानकर इनसे घृणा करती थी। यह घी इनके आचरण और हिंसात्मक प्रवृत्ति के कारण ही थी। ज्ञान विज्ञान की दृष्टि से इनके तन्त्र और शैव मार्ग की न्याय से उसे कोई विरोध नही था; क्यो की वैदिक ऋषि यह जानते थे ,कि दोनो विज्ञान एक ही है, केवल मार्ग मे अन्तर है इसी कारण से उनका इनसे युद्ध होता रहता था।
पुराणों से जो विवरण प्राप्त होते है, उनके अनुसार प्राकृतिक संसाधनों जल एवं वन की रक्षा करने वालो को #_रक्ष और इनकी पूजा करने वालो को#_यक्ष कहा जाता था , किन्तु ऐसा प्रतीक होता है कि इन सम्बोधनों की उत्पति आँखों के वर्ण के अनुसार हुई हो रक्ष,यक्ष, गन्धर्व, वानर, आदि प्राकृतिक संसाधनों मे विकसित होने वाली जातियां थी। जिनका नामाकरण उनके गुण और प्रवृत्ति के अनुसार वैदिक संस्कृति ने किया था। शर और आत्मा की रक्षा करने के सूत्र के कारण इन्हें #_रक्ष कहा जाता है ।

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शनिवार, 20 मार्च 2021

कुंडलिनी ऊर्जा

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( पुनर्प्रेषित )
बीज मन्त्र 
बीज मन्त्रों की रचना में वैज्ञानिक आधार है | विशेष ध्वनी का शरीर के विशेष आंतरिक अंगों पर विशेष प्रभाव होता है | ख़ास  अक्षरों कि विशेषता है की उनके निरंतर जाप से आपके भाव भी बदल सकते हैं |आप किसी ख़ास अक्षर  या शब्द को निरंतर जपते हैं तो आपमें क्रोध उत्पन्न हो सकता है , आपमें प्रेम उत्पन्न हो सकता है , भय उत्पन्न हो सकता है , घृणा उत्पन्न हो सकता है | मैं सिर्फ ख्याली बातें नहीं करता आप प्रयोग कर के देख सकते है | एक प्रयोग बताता हूँ “ रं ” अग्नि बीज है | इसका निरंतर जाप आपमें उर्जा उत्पन्न कर देगा मणिपुर चक्र को सक्रीय कर देगा | इस बीज के जाप से आपके अंदर अतिशय  क्रोध उत्पन्न हो सकता है | इसलिए इस बीज के जाप के समय ध्यान अत्यंत आवश्यक है ध्यान  को दो जगहों पर केन्द्रित करना पड़ता है प्रारम्भ में एक दो मिनट आज्ञा चक्र (दोनों भौं के मध्य ) पर पुन : उसके बाद निरंतर मणिपुर चक्र (नाभि से एक दो अंगुल निचे ) पर | अगर आप ध्यान के साथ इस अग्नि बीज का जाप करते हैं तो कोई दुष्प्रभाव नहीं होगा और आप अत्यंत उर्जा का अनुभव करेंगे | ( रं अग्नि बीज के जाप के समय ब्रह्मचर्य रहना आवश्यक है )
एक मन्त्र है “ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ” | इस मन्त्र के जाप करने पर आप अपने  अंदर प्रेम के भाव की गहनता मह्शूश कर सकते हैं | इस मन्त्र के जाप के समय अपना ध्यान हृदय यानी अनाहत चक्र (छाती के दोनों पसलियों के मध्य ) के पास लगाना पड़ता है | 
ये कुछ उदाहरण मैंने रखा बीज मन्त्रों की महता एवं प्रयोग के सम्बन्ध में | हर बीज मन्त्र का अपना ऊर्जा है वह विशेष रूप से कार्य करता है | शिव सारे मन्त्रों के स्रष्टा हैं भगवान भोले नाथ हम प्राणियों पर दया कर इन मन्त्रों का प्रसाद हमें दिया है | हमें शिव के इस प्रसाद से अवश्य लाभान्वित होना चाहिए |
***
आज एक पुराना पोस्ट हीं पोस्ट कर रहा हूँ  इसे पहले भी पोस्ट किया था । 
और विशेष कुछ अभी कहने को नहीं है , थोड़ी आर्थिक समस्या से जूझ रहा हूँ । एक बात तो सही है  यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव है अगर आप अध्यात्मिक संपदा से पूर्ण हैं तो ईश्वर थोडा आर्थिक  मामले में परीक्षा लेता है 🙂 और अगर आर्थिक रूप से सम्पन्न हैं तो अध्यात्मिक संपदा की कमी होगी । आपका अनुभव क्या कहता है अवश्य टिप्पणी करें । दोनों रूप से  दृष्टि सम्पन्न लोग भी होते हैं किन्तु वे विरले हीं मिलते हैं । 
ॐ ॐ ॐ 
सभी सुखी हों । सभी का ध्यान में गति हो ।
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शुक्रवार, 19 मार्च 2021

मन्त्र जप और मन्त्र सिद्धि

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परम श्रद्धेय ब्रह्मलीन गुरुदेव पण्डित अरुण कुमार शर्मा काशी की अध्यात्म-ज्ञानधारा में पावन अवगाहन

पूज्य गुरुदेव के श्रीचरणों में कोटि-कोटि नमन

      मन्त्र के बार-बार जपने से उसका प्रभाव होता है। मन्त्र शब्द के कम्पन से प्रकम्पित होकर मनुष्य के कोष उसके अनुकूल हो जाते हैं। जो कोष अनुकूल होते हैं, उनसे सम्बंधित विषय का बोध मनुष्य को स्वयं अपने आप होने लगता है। 
       मन्त्र का कार्य श्रद्धा पर आधारित है। मन्त्रों की क्रिया उनके उच्चारण पर निर्भर है।  मंत्रोच्चारण उनके अर्थ पर निर्भर होते हैं।
       मन्त्र के उच्चारण से जो कम्पन पैदा होता है, पहले कुछ समय तक वह वायु में रह कर धीरे-धीरे उसी में विलीन हो जाता है। लेकिन मन्त्र-जप की संख्या जब अधिक हो जाती है तो उसके कम्पन वायु की पर्तों  का भेदन कर सूक्ष्मतम वायु मंडल में चले जाते हैं और वहां से उस देवता का आकार-प्रकार बनाने लग जाते हैं जिस देवता का वह मन्त्र होता है। इसीलिए  मन्त्र-जप की संख्या निश्चित होती है। उस संख्या से जब अधिक जप होता है तभी सूक्ष्मतम वायुमंडल में देवता का आकार-प्रकार बनता है। जब वह पूर्णरूप से बन जाता है तो देवता अपने लोक से आकर उसमें स्वयं प्रतिष्ठित होते हैं। आकार-प्रकार का बनना मन्त्र-चैतन्य का लक्षण है। देवता का अपने आकार-प्रकार में प्रतिष्ठित होना ही मन्त्र-सिद्धि है। मन्त्र सिद्ध होने पर सम्बंधित देवता मन्त्र जपने वाले को उसका फल प्रदान करते हैं। 

-----:ॐ का सही उच्चारण:-----
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      सही ढंग से जो ॐ का उच्चारण करना जानता है ,उसके जैसा कोई साधक नहीं होता। ॐ के उच्चारण में श्वास-प्रश्वास के लय और उसकी गति को समझना आवश्यक है। ॐ का उच्चारण कई प्रकार से किया जाता है। प्रत्येक उच्चारण के स्वर एक दूसरे से भिन्न होते हैं और उनके प्रभाव भी भिन्न होते हैं। भिन्न-भिन्न प्रभाव से तत्काल वातावरण में परिवर्तन होता है।
       ॐ की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि शंख के माध्यम से निकली हुई ॐ की ध्वनि अति विचित्र और महत्व्पूर्ण होती है। इसलिए कि वह देवलोक और उसके ऊपर के लोकों तक सुनाई देती है। देवगण उसको सुनकर चमत्कृत होते हैं और होते हैं प्रसन्न।
       यह तो निश्चित है कि ॐ के उच्चारण की भिन्नता के कारण उसका फल भी भिन्न-भिन्न होता है। "ओ" पर चौगुना ज़ोर देकर दीर्घकाल तक उसका उच्चारण करने के बाद "म" का उच्चारण भी दीर्घकाल तक करना चाहिए। जितना समय ओ के उच्चारण में लगे, उतना ही समय म के उच्चारण में भी लगना चाहिए। ऐसा "म" अत्यधिक शक्तिशाली होता है। ऐसे ॐ के उच्चारण का प्रभाव उच्चारण करने वाले व्यक्ति के मन, मस्तिष्क और आत्मा पर तुरंत पड़ता है। इसके अतिरिक्त अदृश्य रूप से वातावरण में विद्यमान अपआत्माएं ( भूत-प्रेत) भी भाग जाती हैंऔर अच्छी आत्माएं आकर्षित होकर वहां आ जाती हैं और शंख बजाने वाले की सहायता करती हैं मानसिक रूप से। sabhar shivram Tiwari Facebook wall

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सोमवार, 8 मार्च 2021

Complete the Quiz (New Users Only)

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