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बुधवार, 13 अक्तूबर 2021

बेहया-विनीता अस्थाना

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 बेहया-विनीता अस्थाना

पृष्ठ-155

मूल्य-150 रुपए


एक बड़ा ही विचित्र सा नाम है इस किताब का 'बेहया'। कवरपृष्ठ पर ही एक आधुनिक महिला की तस्वीर है हाथों में जाम, कंधे पर गूदे हुए गोदने जिसपर उड़ती हुई पक्षियों की तस्वीरें। एक नजर में लगता है एक ऐसी महिला पर लिखी किताब होगी जिसमें हया ही न बची हो। पर ऐसा नहीं है। इस किताब के संदर्भ में बेहया का अर्थ है थेथर। 'बेहया'एक पौधा होता है, उसकी खूबी ये होती है कि वो बार बार काटे जाने पर भी खत्म नहीं होता है। नदी, तालाब,गड़हा, गड़ही कहीं पर बिना किसी विशेष रखरखाव के वो उग आता है।इतना थेथर, लथेर होता है 'बेहया'।


          ठीक ऐसे ही इस कहानी की नायिका 'सिया' है एकदम से थेथर।इस किताब के बारे में कुछ लिखने से पहले यह जानना जरूरी है कि यह किताब आधुनिक दौर में कम समय में सफलता के सोपान पर चढ़ती हुई कामकाजी महिला के ऊपर लिखा गया है।जब तक महिला भीड़ में गुम रहती है उसपर कोई ध्यान नहीं देता।पर जैसे ही वो सफल होना आरंभ करती है, साथ में सुंदर है और उसके बोलने का तरीका जुदा है तो लोग उसकी तरफ आकृष्ट होना आरम्भ करते हैं। सिया में यह सारी काबिलियत है।

साथ में वो एक अमीरजादे यश की पत्नी हैं उनके प्यारे प्यारे दो बच्चे हैं। 


कहानी बहुत ही सामान्य तरीके से आगे बढ़ती है। जैसा कॉरपोरेट जगत के ऑफिस का माहौल होता है बिल्कुल वैसा ही माहौल है विनीता जी ने बड़े प्रभावी ढंग से उस माहौल का जिक्र किया है। काम, पार्टी, एक दिन वाला प्यार, ऑफिस आवर्स के बाद वाला मुलाकात,प्रोमोशन का खुमार।


सिया को देखकर ,जिस प्रकार से वो इतनी बड़ी कम्पनी को संभाल रही है कहीं से न लगता उस महिला के जीवन मे कुछ भी एब्नार्मल है। महिलाएं ऑफिस में उनको देखकर जलती हैं। जलने की बहुत वजह है कमाऊ पति, सुंदरता, ऑफिस के मेल मेंबर्स का आकर्षण का केंद्र होना।दबी जुबान से ऑफिस में खुसफुसाहट भी है इतने कम समय मे वो सफल होने के लिए उन्होंने क्या क्या किया होगा।


सिया समझती सब है पर बहुत ही समझदारी से सब कुछ हैंडल करती हैं अनावश्यक वाद विवाद में वो कहीं नहीं हैं।

 सिया के ऑफिस में एक अभिज्ञान हैं, सिया से वो प्यार करते हैं, यह जानते हुए भी की वो शादी शुदा हैं उनके दो बच्चे हैं। कभी कभी सिया को वो फ्लर्ट भी करते हैं।इसके पहले वो उसी ऑफिस में तृष्णा के साथ डेढ़ दिन रिलेशनशिप में रह चुके हैं।अभिज्ञान को सिया के बारे में करीब से जानने का मौका तब मिलता है जब वो किसी काम के सिलसिले में कुछ दिन के लिए बाहर जाते हैं।वहां अचानक एक दिन उनका लैपटॉप पर उनको सिया की डायरी पढ़ने को मिलती है।उस डायरी में सिया ने अपने ऊपर हो रहे टार्चर का विस्तार से जिक्र किया होता है।वो अपनी डायरी में लिखती हैं कि वो सेक्सुअल वायलेंस का शिकार हैं, उनके पति शक करते हैं उनपर, दोनों बच्चों को भी वो अपना नहीं मानते,उनको रोज मारते पिटाते हैं। वो सब कुछ इसलिए बर्दाश्त कर रही होती हैं कि उनके बच्चों के ऊपर कोई गलत प्रभाव न पड़े और शायद एकदिन उनके पति यश यह सब करना बंद कर दें।यह सब जानने के बाद अभिज्ञान के मन मे सिया को लेकर बहुत हमदर्दी है।सिया के मन में भी अभिज्ञान के लिए एक सॉफ्ट कॉर्नर है।आगे चलकर वो अपने पति से अलग हो जाती हैं।ताज्जुब की बात यह ही कि जिसे वो साथ रहकर न सुधार सकीं वो अलग होने के बाद सुधर जाता है।


इस किताब में सिया और अभिज्ञान के बीच 'प्लेटोनिक रिलेशनशिप' का जिक्र है, यह नया है।दोनों की अपनी मर्यादाएं हैं, दोनों में आकर्षण है, प्रेम है पर कुछ है जो इसको और प्रेम से अलग बनाता है।दैहिक आकर्षण नहीं है एक अपनापन है, आदर है। जब कहानी में अभिज्ञान की एंट्री होती है तो सिया के प्रति उनके रवैये को देखकर एक पल को ऐसा भी लगता है आगे चलकर कहानी फ्लर्टी टाइप होगी पर ऐसा नहीं है।


यह कहानी केवल सिया की कहानी नहीं है उन हज़ारों औरतों की कहानी है जो घरेलू हिंसा का शिकार हैं, जो ब्लश और फेस पाउडर के माध्यम से अपने चेहरे पर पड़ी उंगलियों के निशान को मिटा लेती हैं, जो अपने शरीर पर उभरे नीले निशान को गले तक कि कमीज पहनकर ढंक लेती हैं और अपने चेहरे पर मुस्कान का एक लबादा ओढ़ लेती हैं, जो कलाई पर पड़े जले का निशान यह कह कर टाल देती है कि कुकर से सट गया था,जो व्यक्तिगत रूप से किसी से मिलें जुलने के बजाय घमंडी कहलाना पसंद करती हैं, जिनको भय है कि उनके व्यक्तिगत जिंदगी इतनी तहस नहस है कि वो दूसरे के सामने क्या मुँह दिखाएगी, वो दूसरों  की आंखों में अपने लिए हमदर्दी और सहानुभूति न देखना चाहती, जिनको समाज की आंखों में आंखे डाल के कहना है सबकुछ मेरी जन्दगी में आप सब की तरह ही नॉर्मल है। मैं एकदम खुशहाल शादीशुदा महिला हूँ।जिनके बच्चों की चाहत में मन के किसी कोने में जिजीविषा बची रहती है जो बार बार ये दुहराती हैं अगर मैं मर गई तो मेरे बाद मेरे बच्चों का क्या होगा?हर उस महिला को यह कहानी अपनी कहानी सी लगेगी। बस उनको बचाने वाला कोई अभिज्ञान होना चाहिए जो रोज तिल तिल मर रही होती हैं।


शारीरिक उत्पीड़न कहीं भी प्रेम को जन्म नहीं देता और जरूरी नहीं कि प्रेम के लिए शरीर एक आवश्यक वस्तु हो। sabhar pustak indino Facebook wall

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मंगलवार, 12 अक्तूबर 2021

आत्मबोध, आत्म अनुभव एवं आत्मज्ञान कैसे हो?

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क्या आपने कभी सोचा है, आप जो भी कल्पना कर सकते हैं आप जो भी सोच सकते हैं वह आपकी इंद्रियों के द्वारा दिया गया अनुभव है। आंख देती है, कान देता है, हाथ देता है, नाक देती है, जबान देती है। आपकी पांच इंद्रियां हैं, क्या आपका मन ऐसी कोई चीज कभी सोच सकता है जो इन पांच इंद्रियों से ज्ञात न हो? एक भी बात नहीं सोच सकता। इसे थोड़ा हम और तरह से समझें तो शायद आसानी पड़े। न आंख उसे देखती है, न कान उसे सुनते हैं, न हाथ उसे छूते है, वह इंद्रियों के पार रह जाता है। वह जो इंद्रियों के पार है, वह मन से सोचा नहीं जा सकता। चिंतन उसका असंभव है। मनन उसका असंभव है। आपको अपना पता चलता है। इतना तो तय है कि आपको अपने होने का पता चलता है। लेकिन क्या कभी आपने सोचा कि जब दूसरी चीजों का आपको पता चलता है तो इंद्रियों के द्वारा चलता है, आपको स्वयं के होने का पता किस इंद्रिय के द्वारा चलता है? प्रकाश का पता चलता है तो आंख से चलता है। ध्वनि का पता चलता है तो कान से चलता है, लेकिन आपको अपना पता किस इंद्रिय से चलता है? आप हैं, ऐसा आपको अनुभव किस इंद्रिय से होता है? इसलिए कोई इंद्रिय उसकी गवाही नहीं दे सकती। इसीलिए दूसरी बात भी आप खयाल में ले लें, अगर मेरी सारी इंद्रियां भी मुझसे अलग कर दी जाएं तो भी मेरे होने का बोध नहीं खोता। अगर मेरा हाथ काट दिया जाए तो भी मेरे होने के बोध में कमी नहीं पड़ती। मेरी आंखें निकाल ली जाएं तो मेरे होने के बोध में कोई कमी नहीं पड़ती। मेरी जबान काट दी जाए तो मेरे होने के बोध में कमी नहीं पड़ती। मेरा जगत छोटा हो जाएगा, मैं छोटा नहीं होऊंगा। मनुष्य के भीतर जो आत्मा है, उसके लिए हम तर्क से निर्णय करने चलते हैं। वह भी अनुभव है। और जब तक ध्यान की आंख उपलब्ध न हो तब तक वह अनुभव नहीं होता। इसलिए ध्यान को तीसरी आंख कहा है। वह आंख उपलब्ध हो, तो जो दिखायी पड़ता है, वह आत्मा है। और तब जो दिखायी पड़ता है, उसके हाथ—पैर नहीं हैं, उसका शरीर नहीं है, वह अरूप है। वह मात्र चैतन्य है। और तब जो दिखायी पड़ता है, अगर वह अपनी परिपूर्ण शुद्धता से अनुभव में आए, तब यह सूत्र खयाल में आएगा। जिस दिन आप अपने आपको जान लेंगे उस दिन से ईश्वर को जानने की यात्रा प्रारंभ होती है। उसके पहले नहीं जान सकते। पहले उसकी पात्रता चाहिए। जो आत्मा को जान लेता है केवल वही पात्र है परमात्मा को जानने का। लेकिन हम ईश्वर को भी इन्द्रियों से जानना चाहते हैं। हम कितने मूर्ख हैं। जिन लोगों ने भी ईश्वर को जाना है तो इन्द्रियों से नहीं जाना। जिस प्रकार आप अपने आपको अनुभव करते हैं ठीक उसी हम ईश्वर को अनुभव कर पाते हैं। ~कैवल्‍य-उपनिषद (भाग-५)

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मंगलवार, 14 सितंबर 2021

चिप विधि से पौध उत्पादन

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नामधारी गुरमीत कौर महिला स्वयं सहायता समूह अटकोहना सलारपुर गन्ना विकास परिषद खम्भारखेड़ा  द्वारा शरदकालीन गन्ना बुवाई हेतु उन्नत प्रजातियों की सिंगल बड़/चिप विधि  से पौध उत्पादन की तैयारिया समूह की महिलाओं द्वारा शुरू की गई।समूह के पदाधिकारियों द्वारा बताया गया कि विगत वर्ष शरदकालीन बुबाई हेतु समूह द्वारा 2.5 लाख पौध का उत्पादन करके बिक्री की गयी।इस वर्ष समूह द्वारा लगभग 3.5 लाख उन्नत प्रजातियों की पौध को तैयार करके बिक्री करने का लक्ष्य है।समूह की पदाधिकारियों द्वारा महिलाओं को सामाजिक व आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने हेतु माननीय मुख्यमंत्री जी को धन्यवाद देते हुए गन्ना विकास विभाग लखीमपुर का आभार व्यक्त किया।

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सोमवार, 30 अगस्त 2021

चिनूक_हेलिकॉप्टर

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अमेरिका से भारत सरकार द्वारा कई चिनूक हेलीकॉप्टर खरीदे गए थे।यह भारी-भरकम,वजनी डबल इंजन हेलिकॉप्टर सुदूर पर्वतीय क्षेत्रों में तैनात सेना के जवानों के साजो-सामान और रसद को बखूबी पहुंचाने में बहुत उपयोगी साबित हुआ है।अभी चार दिन पहले एक चिनूक हेलीकॉप्टर प्रयागराज से बिहटा के लिए जा रहा था।रास्ते मे ही अचानक कोई तकनीकी खराबी के कारण उसे बक्सर के एक गांव मानिकपुर में स्थित हाईस्कूल के एक मैदान में इमरजेंसी लैंडिंग करानी पड़ी।वायुसेना के तकनीकी विशेषज्ञों की टीम में दो दिन में ही उसकी तकनीकी खराबी ठीक कर दी लेकिन अत्यधिक बारिश और घासयुक्त दलदली जमीन के कारण हेलीकॉप्टर टेकऑफ नही कर पा रहा था।तीन चार ट्रैक्टर मंगवा कर उसे खिंचवाने का प्रयास किया गया लेकिन हेलीकॉप्टर टस से मस नही हुआ।विगत तीन दिन से आसपास के सारे ग्रामीणों की इस भारी भरकम हेलिकॉप्टर देखने के लिए भीड़ सी लगी रहती थी।जब सारे प्रयासों से भी हेलीकॉप्टर टेकऑफ नही कर पाया तो स्थानीय ग्राम प्रधान और उपस्थित ग्रामीणों ने विंग कमांडर मालपुरे और अमर मणि त्रिपाठी से अनुरोध किया कि इसके सकुशल टेकऑफ के लिए थोड़ा पूजापाठ करना चाहते हैं।विंग कमांडर तुरन्त तैयार हो गए।फिर क्या था।आनन फानन में सारी पूजा सामग्री इकठ्ठी की गई।विधिवत मंत्रोच्चार से पूजापाठ हुआ।ग्राम प्रधान ने नारियल फोड़ा और हेलीकॉप्टर को तिलक लगाया।भारत माता की जय के गगनभेदी नारों के बीच पायलट ने पुनः प्रयास किया और हेलीकॉप्टर का टेकऑफ हो गया।कुछ ही क्षणों में हेलिकॉप्टर आकाश में नजर आया।
      अब इस घटना की कैसे व्याख्या की जाय?आपकी मर्जी है।वामपंथी और इस प्रकार के पूजापाठ को अंधविश्वास मानने वाले लोग भले नाक भौं सिकोड़े लेकिन सच्चाई तो आपके समक्ष है।जो भी हो,आस्था,विश्वास और विज्ञान का अद्भुत समन्वय है यह घटना। sabhar Facebook wall

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मंगलवार, 17 अगस्त 2021

चौंसठ कलाओं और चन्द्रमा की सोलह कलाओं का अर्थ ?

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क्या है चौंसठ कलाओं और चन्द्रमा की सोलह कलाओं का अर्थ ?
क्या है चौंसठ कलाओं  का अर्थ?-

 05 FACTS;-

1-प्राचीन काल में भारतीय शिक्षा-क्रम का क्षेत्र बहुत व्यापक था। शिक्षा में कलाओं की शिक्षा भी अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखती थीं ।भारतीय साहित्य में कलाओं की अलग-अलग गणना दी गयी है।कला का लक्षण  हैं कि जिसको एक मूक (गूँगा) व्यक्ति भी, जो वर्णोच्चारण भी नहीं कर सकता, कर सके, वह 'कला' है।काम और अर्थ कला के ऊपर आश्रय पाते हैं।राम 12 कलाओं के ज्ञाता थे तो भगवान श्रीकृष्ण सभी 16 कलाओं के ज्ञाता हैं। चंद्रमा की सोलह कलाएं होती हैं। सोलह श्रृंगार के बारे में भी आपने सुना होगा।  उपनिषदों अनुसार 16 कलाओं से युक्त व्यक्ति ईश्‍वरतुल्य होता है। जो व्यक्ति मन और मस्तिष्क से अलग रहकर बोध करने लगता है वहीं 16 कलाओं में गति कर सकता है।कुमति, सुमति, विक्षित, मूढ़, क्षित, मूर्च्छित, जाग्रत, चैतन्य, अचेत आदि शब्दों का संबंध हमारे मन और मस्तिष्क से होता है। भारतीय साहित्य में 'प्रबन्ध कोश' तथा 'शुक्रनीति सार' में कलाओं की संख्या  64 है। 

2-'ललितविस्तर' में तो 86 कलाएँ गिनायी गयी हैं।परन्तु  शैव तन्त्रों में चौंसठ कलाओं का उल्लेख मिलता है।लीला-पुरुषोत्तम-योगेश्वर श्रीकृष्ण चौसठ कला सम्पन्न माने जातें है। ये 64 कलाएं नाम भेद से अन्य ग्रन्थों में भी उल्लेखित है।जीवन को सुखपूर्वक जीने के लिए, जिन्दगी को बेहतर बनाने के लिए हुनर व कौशल की आवश्यकता होती है। यह कला बुद्धि, विवेक व अभ्यास से आती है। धन-सम्पदा, साधन-सुविधाएँ उसके उपार्जन में सहायक तो हो सकती हैं किन्तु सब कुछ नहीं। इसीलिए कलाहीन को असभ्य कहा जाता है। ऐसा व्यक्ति कल्पनाहीन होता है, रूचिसंपन्न नहीं होता।मन पर संयम, पूर्ण स्वास्थ्य और सच्ची प्रसन्नता के लिए जीने की कला का जानना जरूरी है। भोगमात्र को जीवन का लक्ष्य मानने वाले यह कला नहीं सीख सकते। जीवन जीने की कला का अर्थ है कि हमारे हर काम में उत्कृष्टता हो ।

 3-इन चौंसठ कलाओं को मुख्यतः पाँच वर्गों में विभाजित किया जा सकता है -

1. चारू (ललितकला):- 

नृत्य, गीत, वाद्य, चित्रकला, प्रसाधन आदि कलाएँ चारू अर्थात् ललितकला के अन्तर्गत आती हैं।

2. कारू (उपयोगी कलाएँ):- 

नाना प्रकार के व्यंजन बनाने की कला, कढ़ाई, बुनाई, सिलाई की कला तथा कुर्सी, चटाई आदि बुनने की कलाएँ “कारू” वर्ग के अन्तर्गत आती हैं।

3. औपनिषदिक कलाएँ:- 

औपनिषदिक कलाओं के अन्तर्गत वाजीकरण, वशीकरण, मारण, मोहन, उच्चाटन, यन्त्र, मन्त्रों एवं तन्त्रों के प्रयोग, जादू-टोना आदि से सम्बन्धित कलाओं का परिगणन किया जा सकता है।

4. बुद्धिवैचक्षण्य कलाएँ ;- 

इसके अन्तर्गत पहेली बुझाना, अन्त्याक्षरी, समस्यापूत्र्ति, क्लिष्ट काव्य रचना, शास्त्रज्ञान, भाषाज्ञान, वाक्पटुता, भाषणकला, भेड़-मुर्गा-तीतर-बटेर आदि को लड़ाने की कला, तोता-मैनादि पक्षियों को बोली सिखाने की कला आदि का समावेश होता है।

5. क्रीड़ा-कौतुक:- 

क्रीड़ाकौतुक के अन्तर्गत द्यूतक्रीड़ा, शतरंज, व्यायाम, नाट्यकला, जलक्रीड़ा, आकर्षक्रीड़ा आदि से सम्बन्धित कलाओं का परिगणन किया जा सकता है।

 4-निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि चौंसठ कलाएँ न केवल प्राचीन काल में उपयोगी रही हैं अपितु वर्तमान काल में भी इसकी उपयोगिता और आवश्यकता बरकरार है।भारतवर्ष की इन प्राचीन कलाओं को विशिष्ट रूप से संरक्षित करते हुए भावी पीढ़ी को इसे सिखाने की जिम्मेदारी भी हमारी बनती है। कला हमारे अन्दर कर्मण्यता का भाव जगाती है ,हमें कर्मशील बनाती है। इसलिए कर्म को पूजा का पर्याय कहा जाता है। यदि शिक्षा, ज्ञान, अनुभव तथा नया व अच्छा सीखने की ललक हो तो जीवन जीने की कला आसानी से सीखी जा सकती है। इसके लिए सद्गुणों व सदाचरण की आवश्यकता पड़ती है। दुर्गुणों से दूर रहकर व्यसनों को तिलांजलि देनी पड़ती है।

5-64  कलायें निम्नलिखित हैं-    

1- गानविद्या

2- वाद्य - भांति-भांति के बाजे बजाना

3- नृत्य

4- नाट्य

5- चित्रकारी

6- बेल-बूटे बनाना

7- चावल और पुष्पादि से पूजा के उपहार की रचना करना

8- फूलों की सेज बनान

9- दांत, वस्त्र और अंगों को रंगना

10- मणियों की फर्श बनाना

11- शय्या-रचना (बिस्तर की सज्जा)

12- जल को बांध देना

13- विचित्र सिद्धियाँ दिखलाना

14- हार-माला आदि बनाना

15- कान और चोटी के फूलों के गहने बनाना

16- कपड़े और गहने बनाना

17- फूलों के आभूषणों से शृंगार करना

18- कानों के पत्तों की रचना करना

19- सुगंध वस्तुएं-इत्र, तैल आदि बनाना

20- इंद्रजाल-जादूगरी

21- चाहे जैसा वेष धारण कर लेना

22- हाथ की फुर्ती  के काम

23- तरह-तरह खाने की वस्तुएं बनाना

24- तरह-तरह पीने के पदार्थ बनाना

25- सूई का काम

26- कठपुतली बनाना, नाचना

27- पहेल

28- प्रतिमा आदि बनाना

29- कूटनीति

30- ग्रंथों के पढ़ाने की चातुरी

31- नाटक आख्यायिका आदि की रचना करना

32- समस्यापूर्ति करना

33- पट्टी, बेंत, बाण आदि बनाना

34- गलीचे, दरी आदि बनाना

35- बढ़ई की कारीगरी

36- गृह आदि बनाने की कारीगरी

37- सोने, चांदी आदि धातु तथा हीरे-पन्ने आदि रत्नों की परीक्षा

38- सोना-चांदी आदि बना लेना

39- मणियों के रंग को पहचानना

40- खानों की पहचान

41- वृक्षों की चिकित्सा

42- भेड़ा, मुर्गा, बटेर आदि को लड़ाने की रीति

43- तोता-मैना आदि की बोलियां बोलना

44- उच्चाटन की विधि

45- केशों की सफाई का कौशल

46- मुट्ठी की चीज या मनकी बात बता देना

47- म्लेच्छित-कुतर्क-विकल्प...वस्तुतः यह बीजलेखन (क्रिप्टोग्राफी) और गुप्तसंचार की कला है।ऐसे संकेत से लिखना, जिसे उस संकेत को जानने वाला ही समझे।

48- विभिन्न देशों की भाषा का ज्ञान

49- शकुन-अपशकुन जानना, प्रश्नों उत्तर में शुभाशुभ बतलाना

50- नाना प्रकार के मातृकायन्त्र बनाना

51- रत्नों को नाना प्रकार के आकारों में काटना

52- सांकेतिक भाषा बनाना

53- मन में कटक रचना करना

54- नयी-नयी बातें निकालना

55- छल से काम निकालना

56- समस्त कोशों का ज्ञान

57- समस्त छन्दों का ज्ञान

58- वस्त्रों को छिपाने या बदलने की विद्या  

59- द्यू्त क्रीड़ा

60- दूर के मनुष्य या वस्तुओं का आकर्षण

61- बालकों के खेल

62- मन्त्रविद्या

63- विजय प्राप्त कराने वाली विद्या

64- बेताल आदि को वश में रखने की विद्या

क्या है चन्द्रमा की सोलह कला ?-

07 FACTS;-

 1-प्रत्येक व्यक्ति को अपनी तीन अवस्थाओं का ही बोध होता है:- जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति। जगत तीन स्तरों वाला है- 1.एक स्थूल जगत, जिसकी अनुभूति जाग्रत अवस्था में होती है। 2.दूसरा सूक्ष्म जगत, जिसका स्वप्न में अनुभव करते हैं और 3.तीसरा कारण जगत, जिसकी अनुभूति सुषुप्ति में होती है।  तीन अवस्थाओं से आगे: सोलह कलाओं का अर्थ संपूर्ण बोधपूर्ण ज्ञान से है। मनुष्‍य ने स्वयं को तीन अवस्थाओं से आगे कुछ नहीं जाना और न समझा। प्रत्येक मनुष्य में ये 16 कलाएं सुप्त अवस्था में होती है। अर्थात इसका संबंध अनुभूत यथार्थ ज्ञान की सोलह अवस्थाओं से है। इन सोलह कलाओं के नाम अलग-अलग ग्रंथों में भिन्न-भिन्न मिलते हैं।  

2-The Moon has 16 kalas, or phases. Out of these 15 are visible to us and the 16th is beyond our visibility. 16 कलाएं दरअसल बोध प्राप्त योगी की भिन्न-भिन्न स्थितियां हैं। बोध की अवस्था के आधार पर आत्मा के लिए प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा तक चन्द्रमा के प्रकाश की 15 अवस्थाएं ली गई हैं। अमावास्या अज्ञान का प्रतीक है तो पूर्णिमा पूर्ण ज्ञान का। 16 कलाओं के नाम हैं...  

1-अमृता ,  2.मानदा ,  3.पूषा , 4.तुष्टि ,   5.पुष्टि ,  6.रति ,   7.धृति ,  8.ससीचिनी ,  9.चन्द्रिका , 4.तुष्टि , 10.कांता ,  11.ज्योस्तना ,  12.श्री ,  13.प्रीती ,  14.अँगदा  ,  15. पूर्णा 16.पूरनअमृता । ये  चंद्रमा के प्रकाश की 16 अवस्थाएं हैं उसी तरह मनुष्य के मन में भी एक प्रकाश है। मन को चंद्रमा के समान ही माना गया है। जिसकी अवस्था घटती और बढ़ती रहती है। चंद्र की इन सोलह अवस्थाओं से 16 कला का चलन हुआ।इसी को प्रतिपदा, दूज, एकादशी, पूर्णिमा आदि भी कहा जाता है।  व्यक्ति का देह को छोड़कर पूर्ण प्रकाश हो जाना ही प्रथम मोक्ष है।      

 3-These 16 kalas are ruled by the 16 Nitya Devis. They are called Shodasa Nityas. They are: 1.महा त्रिपुरा  सुंदरी ,  2.कामेश्वरी ,  3.भगमालिनी ,  4.नित्यक्लिन्ना ,  5.भेरुण्डा ,  6.वन्हीवासिनी , 7.महा  वज्रेश्वरी ,  8.शिवदूती  (रौद्री ),  9.त्वरिता ,  10.कुलसुंदरी ,  11.नित्या  ,  12.नीलपताका ,  13.विजया  ,  14.सर्वमंगला ,  15.ज्वालामालिनी 16.चिद्रूपा  (चित्रा  )।  नित्याओ में से पहिली नित्या श्रीकामेश्वरी हैं।कामेश्वरी देवी शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि हैं , जो उगते हुए सूर्य अथवा अंधेरे से रोशनी की ओर ले जाने वाली । यह इच्छाओं की देवी हैं , आपके गहनतम विचारों में छुपी हुई इच्छाओं को प्रगट करना और पूर्ति करना यही उसका कार्य हैं। इस देवी का तेज दस करोड़ सूर्य की तेज की भांति हैं। यह देवी दो तिथियो पर कमांड करती हैं , अमावस्या के बाद आने वाली प्रतिपदा और पूर्णिमा के बाद आने वाली प्रतिपदा तिथि 

पर।

4-कामदेव को भस्म करने से पूर्व उसे अपने नेत्रों में सुरक्षित रखने वाली , तथा उसे अपने नेत्रो से फिरसे पुनः जीवन देने वाली जो शक्ति हैं , वह यही हैं ।कामदेव के पाँच बाण और पाँच कामदेव के रूप में जो तेज है , वह इसी देवी के कारण उसे प्राप्त होता हैं।

1. कामराज ह्रीं

2. मन्मथ क्लीं

3. कंदर्प ऐं

4. मकरकेतन ब्लूम

5. मनोभव स्त्रीं

5-ईस तरह से ये देवी की 5 शक्तियाँ 5 कामदेव के रूप हैं। जो पाँच बाण है , वह देवी के हाथों में हैं ।वह देवी लाल रंग की हैं , छह हाथ , तीन नेत्र , चंद्रकोर और पूर्ण आभूषण से युक्त उसका शरीर हैं। ईख का दंडा , पुष्पबाण सहित हैं ।सूर्य की सुबह की पहली किरण की ऊर्जा , सृजन की मूल शक्ति प्रेरणा और ब्रम्हा को सृष्टि सृजन की जो शक्ति थी वह यही श्रीकामेश्वरी नित्या हैं। कामदेव को जन्म देने वाली , उसे पुनः जीवन देने वाली अर्थात …. इन सबका मूल कामदेव ही हैं , और उसकी शक्ति कामेश्वरी नित्या ।कामेश्वरी नित्या कामनाओं की कामना , इच्छाओं की इच्छा को भी पूर्ण करने की क्षमता रखती हैं। जो अंधेरे में है उसे उजाले में लाती हैं । व्यक्ति के गुणों को बढ़ावा देती हैं।इच्छा, ज्ञान ,क्रिया में यह 'इच्छा शक्ति' है ।

6-भगवान् आद्य शङ्कराचार्य ने सौन्दर्यलहरी में ललिताम्बा षोडशी श्रीविद्या की स्तुति करते हुए कहा है कि "अमृत के समुद्र में एक मणि का द्वीप है, जिसमें कल्पवृक्षों की बारी है, नवरत्नों के नौ परकोटे हैं उस वन में चिन्तामणि से निर्मित महल में ब्रह्ममय सिंहासन है जिसमें पञ्चकृत्य के देवता ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र और ईश्वर आसन के पाये हैं और सदाशिव फलक हैं। सदाशिव की नाभि से निर्गत कमल पर विराजमान भगवती षोडशी त्रिपुरसुन्दरी का जो ध्यान करते हैं वे धन्य हैं। भगवती ललिता के प्रभाव से उन्हें भोग और मोक्ष दोनों सहज ही उपलब्ध हो जाते हैं।''षोडशी महाविद्या के ललिता, त्रिपुरा, राज-राजेश्वरी, महात्रिपुरसुन्दरी, बालापञ्चदशी आदि अनेक नाम हैं। लक्ष्मी, सरस्वती, ब्रह्माणी - तीनों लोकों की सम्पत्ति एवं शोभा का ही नाम श्री है।'त्रिपुरा' शब्द का अर्थ है- जो ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश- इन तीनों से पुरातन हो वही त्रिपुरा हैं। 'त्रिपुरार्णव' ग्रन्थ में कहा गया है-  'सुषुम्ना, पिंगला और इडा - ये तीनों नाडियां हैं और मन, बुद्धि एवं चित्त - ये तीन पुर हैं। इनमें रहने के कारण इनका नाम त्रिपुरा है।  

7-षोडशी महाविद्या हैं भुक्ति-मुक्ति-दायिनी ।सोलह अक्षरों के मन्त्रवाली ललिता देवी की अङ्गकान्ति उदीयमान सूर्यमण्डल की आभा की भांति है।तन्त्रशास्त्रों में महाविद्या षोडशी देवी को पञ्चवक्त्रा अर्थात् पाँच मुखों वाली बताया गया है। चारों दिशाओं में चार मुख और एक ऊपर की ओर मुख होने से इन्हें पञ्चवक्त्रा कहा जाता है। देवी के पाँचों मुख तत्पुरुष, सद्योजात, वामदेव अघोर और ईशान शिव के पाँचों रूपों के प्रतीक हैं। भगवती महात्रिपुरसुंदरी ललिता महाविद्या अपने उपासक को भुक्ति और मुक्ति दोनों प्रदान करती हैं।भगवान् शङ्कराचार्य ने भी श्रीविद्या के रूप में इन्हीं षोडशी देवी की उपासना की थी। इसीलिये आज भी सभी शाङ्करपीठों में भगवती षोडशी राजराजेश्वरी त्रिपुरसुन्दरी की श्री यन्त्र के रूप में आराधना करने की परम्परा चली आ रही है। षोडशी महाविद्या हैं भुक्ति-मुक्ति-दायिनी।दुर्वासा ऋषि श्रीविद्याके परमाराधक हुए हैं। षोडशी महाविद्या की उपासना श्रीचक्र में होती है।इन आद्याशक्ति षोडशी महाविद्या के स्थूल, सूक्ष्म, पर तथा तुरीय चार रूप हैं।ध्यान की महिमा मन्त्र जप से भी अधिक बतलाई गई है। 

IMPORTANT NOTES;-

1-Out of these, the first one, Maha Tripura Sundari is the Devi Para Shakti herself, and hence the kala ruled by her is not visible to the normal mortals. Hence we see only the other 15 kalas or phases ruled by the other nityas. In the Sri Chakra these 15 nityas are present in the innermost circle, and the Devi is in the central bundu.  These 15 Nityas rule the famous 15 letters Devi mantra known as Panchadasakshari Mantra: Ka E Aie La Hreem Ha Sa Ka Ha La Hreem Sa Ka La Hreem  These 15 Nityas in the form of the 15 Tithis (Phases) have two aspects each – Prakashamsa, which rules the day portion of the Tithi, and Vimarshamsa, which rules the night part of the Tithi. At night they collect the divine nectar and during the day they release it.  

2-On Poornima or full moon day all the 15 Nityas are in the moon and the moon is shining brightly. On the 1st Thithi after the Poornima, i.e., Pratipada, one Nitya leaves the moon and goes to the sun and the moon is reduced slightly in size. On the next Dwiteeya Tithi another Nitya leaves the moon and goes to the sun and the moon is further reduced in size. This way they leave one by one till the moon becomes totally dark on the 15th day, which is called Amavasya or the new moon day. This is known as Krishna Paksha or the waning phase.  

3-After Amavasya they return one by one on each Tithi and the moon starts shining again till its full on the Poornima when the last Nitya returns to it. This is called Shukla Paksha. Kameswari to Chitra are the Nityas ruling the Krishna Paksha Tithis from Pratipada to Amavasya. In Shukla Paksha the order of the Nityas is reversed, i.e., Chitra to Kameswari.  The Nitya of the Asthami or 8th Tithi, Twarita, is common and constant to both the Pakshas. Hence she adorns the crown of Devi. 

4-सोलहवीं कला पहले और पन्द्रहवीं को बाद में स्थान दिया है। इससे निर्गुण -सगुण स्थिति भी सुस्पष्ट हो जाती है। सोलह कला युक्त पुरुष में व्यक्त अव्यक्त की सभी कलाएं होती हैं ।यही दिव्यता है...।

1.बुद्धि का निश्चयात्मक हो जाना।

2.अनेक जन्मों की सुधि आने लगती है।

3.चित्त वृत्ति नष्ट हो जाती है।

4.अहंकार नष्ट हो जाता है।

5.संकल्प-विकल्प समाप्त हो जाते हैं। स्वयं के स्वरुप का बोध होने लगता है।

6.आकाश तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। कहा हुआ प्रत्येक शब्द सत्य होता है।

7.वायु तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। स्पर्श मात्र से रोग मुक्त कर देता है।

8.अग्नि तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। दृष्टि मात्र से कल्याण करने की शक्ति आ जाती है।

9.जल तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। जल स्थान दे देता है। नदी, समुद्र आदि कोई बाधा नहीं रहती।

10.पृथ्वी तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। हर समय देह से सुगंध आने लगती है, नींद, भूख प्यास नहीं लगती।

11.जन्म, मृत्यु, स्थिति अपने आधीन हो जाती है।

12.समस्त भूतों से एक रूपता हो जाती है और सब पर नियंत्रण हो जाता है। जड़ चेतन इच्छानुसार कार्य करते हैं।

13.समय पर नियंत्रण हो जाता है। देह वृद्धि रुक जाती है अथवा अपनी इच्छा से होती है।

14.सर्वव्यापी हो जाता है। एक साथ अनेक रूपों में प्रकट हो सकता है। पूर्णता अनुभव करता है। लोक कल्याण के लिए संकल्प धारण कर सकता है।

15.कारण का भी कारण हो जाता है। यह अव्यक्त अवस्था है।

16.उत्तरायण कला- अपनी इच्छा अनुसार समस्त दिव्यता के साथ अवतार रूप में जन्म लेता है जैसे राम, कृष्ण। यहां उत्तरायण के प्रकाश की तरह उसकी दिव्यता फैलती है।

..SHIVOHAM...

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सोमवार, 16 अगस्त 2021

ट्रेन विद हाइड्रोजन फ्यूल सेल

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कुछ दिनों पहले एक खबर पढ़ी थी, कि जर्मनी दुनिया का पहला देश बनने जा रहा है, जहां हाइड्रोजन फ्यूल सेल से ट्रेन चलेंगी.... ऐसा ही कुछ रिसर्च और ट्रायल पोलैंड में भी होने की खबर आ रही है.

हाइड्रोजन फ्यूल सबसे क्लीन फ्यूल कहलाता है, जिसमें कार्बन फुटप्रिंट भी negligible होता है, और आपको डीजल या electricity की जरूरत नहीं रहती ट्रेन चलाने के लिए, जो किसी भी रेलवे सिस्टम को हर साल सैंकड़ो करोड़ की बचत करा सकता है।

मैं सोच रहा था, भारत में ये टेक्नोलॉजी या ये माइंडसेट आने में ही 10-15 साल लग जाएंगे... लेकिन यहां मैं गलत साबित हुआ। 

बड़ी खबर ये है, कि भारतीय रेलवे ने हाइड्रोजन फ्यूल पर काम करना शुरू कर दिया है, और अगर सब कुछ सही रहा तो हम दुनिया में दूसरे या तीसरे देश होंगे जहां हाइड्रोजन फ्यूल से चलने वाली ट्रेन होंगी।

इंडियन रेलवे ने Bids invite की है, जिसमें Private players को आमंत्रित किया गया है। डीजल से चलने वाली ट्रेन में हाइड्रोजन फ्यूल सेल लगाने के लिए। साथ ही इन ट्रेन में सोलर पेनल्स भी लगे होंगे....ये प्रोजेक्ट अक्टूबर से शुरू होने जा रहा है।

सोनीपत-जींद section की 2 DEMU trains का चुनाव किया गया है, इनमें ये सिस्टम लगाया जाएगा। सोलर पैनल से बनने वाली बिजली द्वारा पानी का electrolysis करके हाइड्रोजन अलग किया जाएगा और फिर Hydrogen Fuel Cell System द्वारा energy generate करके ट्रेन चलाई जाएगी। बाद में धीरे धीरे सभी डीजल train को hydrogen fuel पर migrate किया जाएगा।

मात्र इन दो ट्रेन को हाइड्रोजन से चलाने पर साल के 2.3 करोड़ रुपये के fuel bill की बचत होगी, अब आप अंदाजा लगा लीजिये, हमारे पास हजारों ट्रेन हैं, सभी में ये सिस्टम लगेगा तो कितनी बचत होने वाली है।

ऊपर से इस technology का उपयोग करने से Carbon Footprints (NO2) भी 11 Kilo Tonnes Per annum कम होगा, अगर इसे समूची इंडियन रेलवे में लगा दिया जाए तो समझिए कितना प्रदूषण हमेशा के लिए कम हो जाएगा।

इसके साथ ही भारत दुनिया में अकेला देश है जहां 1000 से ज्यादा रेलवे स्टेशन्स को पूरी तरह से Solar powered बनाया जा चुका है, और 2030 तक भारतीय रेलवे के सभी स्टेशन्स सोलर powered होंगे। इसके अलावा 50 के लगभग trains को भी सोलर पावर से चलाने के लिए काम किया जा रहा है।

ये वही इंडियन रेलवे है, जो कुछ साल पहले तक रेल मंत्री के राज्य में नई train शुरू करने की घोषणा तक सीमित हुआ करती थी। आये दिन एक्सीडेंट की खबरें, और हर साल हजारो मौतें हुआ करती थीं। बदबू से सराबोर रेलवे प्लेटफॉर्म, गंदगी से भरी हुई ट्रेन की पटरियां..…सने हुए टॉयलेट्स हुआ करते थे.... आज ये सब बदल चुका है।

अब रेल मंत्री कौन है, कौन से प्रदेश से है, किसी को नहीं पता। आज बात होती है तेजस की, बुलेट की, vistadome की, अत्याधुनिक DEMU की... वहीं पिछले 2 साल में इंडियन रेलवे accident free रहा है, एक भी मौत नहीं हुई... देश में एक भी crossing अब बिना controlled barrier के नहीं है, उन क्रासिंग पर हर साल हजारों मारे जाते थे, अब कोई नहीं मरता।

प्लेटफॉर्म्स और स्टेशन की सफाई world class है... हर train में Bio Toilet लग चुका है, जिससे ना सिर्फ टॉयलेट्स साफ रहते हैं, बल्कि पटरियां भी चौचक रहती हैं।

सुविधाएं बढ़ गयी हैं, वहीं innovation पर काम चल रहा है... सोलर और हाइड्रोजन जैसी टेक्नोलॉजी अपनाने में भारत दुनिया में सबसे आगे है।

और फिर कुछ दिलजले आते हैं और हाथ हिला हिला कर कहते हैं, कुछ नहीं बदला 7 साल में... ऐसे लोगों के लिए सरकार को रतौंधी, cataract और मोतियाबिंद का इलाज फ्री कर देना चाहिए 😊😊
               तस्वीर सांकेतिक है
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मेजर ध्यानचंद हॉकी का जादूगर

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मेजर ध्यानचन्द सुपुत्र स्व . श्री समेश्वरदत्त सिंह का जन्म 29 अगस्त , 1905 को इलाहाबाद में एक बैंस राजपूत परिवार में हुआ था । इनके पिता सेना में थे और बाद में झांसी में रहने लग गये । ध्यानचन्द भी 16 वर्ष की आयु में सेना में भर्ती हो गये । इनका नाम तो ध्यान सिंह था पर ऐसी मान्यता है कि वे रात के समय चन्द्रमा के प्रकाश में हॉकी का अभ्यास करते थे इसलिए इनके साथी इनको ध्यान चन्द के नाम से पुकारने लगे । वे सेना में सिपाही भी हुए और मेजर की रैंक से रिटायर हुए ।

हॉकी के खेल में जो ऊँचाइयाँ उन्होंने छुई , जो कीर्तिमान उन्होंने स्थापित किये , जो दक्षता उन्होंने प्रदर्शित की उसका समकक्ष इतिहास में ढूंढने से भी नहीं मिलेगा । यही नहीं भविष्य में भी लम्बे इंतजार के बाद भी शायद निराशा ही हाथ लगे । 

श्री ध्यानचन्द के बलबूते हमारी टीम ने लगातार तीन ( 1928,1932 और 1936 ) ओलम्पिक स्वर्ण पदक जीते जो अपने आप में एक कीर्तिमान है । 

1928 के एमस्टर्डम समर ओलम्पिक में हमारे पूल में ओस्ट्रिया , बेलजियम , डेनमार्क और स्विट्जरलैण्ड की टीमें थी । 17 मई , 1928 को ऑस्ट्रिया को 6-0 ( जिसमें ध्यानचन्द ने 3 गोल दागे ) से हराया । दूसरे दिन बेलजियम को 9-0 से और 20 मई को डेनमार्क को 5-0 ( ध्यान चन्द के तीन गोल ) से हराया । चौथे मैच में स्विटजरलैण्ड को 6-0 से हराया जिनमें ध्यानचन्द ने 4 गोल दागे । 26 मई को फाइनल में नीदरलैण्ड को 3-0 से हराकर देश के लिए पहला ओलम्पिक स्वर्ण पदक जीता । इन पाँच मैचों में ध्यानचन्द ने 14 गोल किये । इस पर एक समाचार - पत्र ने लिखा , - " यह हॉकी का खेल नहीं बल्कि जादूगरी है । " ध्यानचन्द के भाई रूप सिंह भी इस टीम में खेले । 

1932 के लॉस एन्जिलिस ओलम्पिक का पहला मैच जापान से खेला और 11-1 से जीत हासिल की । आखिरी मैच usa के खिलाफ 24-1 से जीता जो उस समय का विश्व रिकार्ड था । वहाँ के एक समाचार पत्र में लिखा- " भारतीय टीम एक पूर्व दिशा से आये तूफान की तरह थी जिसने सभी प्रतिद्वन्दियों को धराशायी कर अमेरिका की टीम कोउखाड़ फेंका । " 

1936 के ओलम्पिक से पहले 1934 में कई राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय अभ्यास मैच खेले गये । कुल मिलाकर 48 मैच खेले और सभी जीते जिनमें हमारी टीम ने 584 गोल दागे और मात्र 40 गोल खाये । इन 48 मैचों में से ध्यानचन्द 43 में खेले और 201 गोल अकेले ने दागे । 1935 में अभ्यास मैचों की श्रृंखला खेलते हुए वे 13 जुलाई को बर्लिन पहुंचे । यहाँ तक की रेल यात्रा बड़ी कष्टदायी और थका देने वाली थी । 17 जुलाई को एक अभ्यास मैच जर्मनी के विरुद्ध खेला और बदकिस्मती से 4-1 से हार गये जिसका सदमा काफी लम्बे समय तक रहा । 
1936 के बर्लिन ओलम्पिक का पहला मैच 05 अगस्त को हंगरीसे 4-0 से जीत लिया । इसी तरह शेष मैच usa से 7-0 , जापान से 9-0 और सेमीफाइनल में फ्रान्स से 10-0 से जीत लिया । दूसरे पूल से जर्मन टीम जीत कर फाइनल में पहुंची । इस तरह 1936 के बर्लिन ओलंपिक के लिए भारत और जर्मनी की टीम के बीच 15 अगस्त के दिन फाइनल मैच खेला गया । पहले अभ्यास मैच में हार चुकी भारतीय टीम के हौसले जितने पस्त थे उतने ही जर्मन टीम के हौसले बुलन्द । मैदान में उतरने से पूर्व भारतीय टीम लॉकर रूम में तिरंगे झण्डे को सलाम कर जीत के लिए प्रार्थना कर मैदान में चल पड़ी । मैच शुरू हुआ । हाफ टाइम तक हमारी टीम केवल एक गोल कर सकी । इसके बाद पूरे जोश के साथ आक्रामक मुद्रा में खेलना शुरू किया और आसानी से जर्मन टीम को 8-1 से हरा कर बर्लिन ओलम्पिक का स्वर्ण पदक भी अपनी झोली में डाल एक और रिकार्ड कायम किया । 
इस ओलम्पिक जीत के बाद ध्यानचन्द का ज्यादा समय “ सेना सेवा " में कटा, दूसरे विश्व युद्ध के बाद 1945 में ध्यानचन्द ने एक युवा टीम को तैयार करने का काम शुरू किया । 1947 में एशियन स्पोर्टस एसोसिएशन ने इण्डियन हॉकी फेडरेशन से गुजारिश की कि वह कुछ मैचों की श्रृंखला खेलने के लिए टीम भेजे जिसमें ध्यानचन्द के होने की शर्त रखी । ध्यानचन्द की कप्तानी में यह टीम 15 दिसम्बर को मोमबासा पहुंची । वहाँ नौ मैच खेले और सभी में विजयी रही ।

1948 में ईस्ट अफ्रीका से आने के बाद ध्यानचन्द ने धीरे - धीरे हॉकी से संन्यास लेना शुरू कर दिया । कुछ एग्जीबिशन मैचखेले । एक मैच 1948 की सम्भावित टीम से भी खेला जिसमें इनकी टीम 2-1 से हार गई । 
ध्यानचन्द का अंतिम मैच बंगाल के विरुद्ध खेला गया जो बिना हार जीत के फैसले के समाप्त हो गया । बंगाल एसोसिएशन ने ध्यान चन्द और उनके योगदान का सम्मान करने के लिए एक विशाल जन समारोह का आयोजन किया था ।मेजर ध्यानचन्द सेना से 1956 में रिटायर्ड हुए । इसी वर्ष उनको “ पद्मभूषण " से नवाजा गया । सेना से सेवा निवृत्ति के बाद लम्बे समय तक वे हॉकी के कोच रहे, 03 दिसम्बर , 1979 को मेजर ध्यानचन्द ने एम्स में आखरी श्वास ली ।

झांसी के हीरोज ग्राउण्ड में पंजाब रेजीमेण्ट की उपस्थिति में भारी जन समूह ने नम आँखों से हॉकी के जादूगर को आखिरी विदाई दी । ध्यानचन्द का पार्थिव शरीर पंच तत्व में समा गया परन्तु शेष है खेल भावना , उनका खेलप्रेम , राष्ट्र प्रेम , निष्ठा , स्वाभिमान और जादूगरी । कृतज्ञ राष्ट्र , 29 अगस्त ( उनका जन्म दिन ) , को उनके सम्मान में “ राष्ट्रीय खेल दिवस ' के रूप में मनाता है । 2012 में उनको जैम ऑफ इण्डिया अवार्ड प्रदान किया गया जिसको उनके पुत्र अशोक को सौंपा गया । यह अवार्ड जर्नलिस्ट एसोसिएशन ऑफ इण्डिया द्वारा दिया गया । मेजर ध्यानचन्द के नाम पर वर्ष 2002 से खेलों में विशेष योगदान के लिए ध्यान चन्द अवार्ड ' दिया जा रहा है ।

जो दिल्ली के नेशनल स्टेडियम का नाम बदलकर 2002 में ध्यानचन्द नेशनल स्टेडियम रखा गया है । लन्दन में जिमखाना क्लब के एस्ट्रोटर्फ पिच का नाम ध्यानचन्द रखा गया है । 25 जुलाई , 2015 को ब्रिटिश संसद के हाऊस ऑफ कॉमन्स ने मेजर ध्यानचन्द को “ भारत गौरव " के पुरस्कार से सम्मानित किया । पहले भी लन्दन ओलम्पिक 2012 के दौरान मेट्रो स्टेशन का नाम ध्यानचन्द रखा गया । कुल मिलाकर उन्होंने 1926 से 1948 तक 400 से अधिक गोलदागे । 

#कुछ रोचक घटनाएँ : 1936 के बर्लिन ओलम्पिक के दौरान जर्मनी से खेलते । गति से खेलने के लिए अपने स्पाइक शूज और स्टाकिंग्स निकाल दिये थे और नंगे पैर खेले ।

 एक समय की घटना है कि हॉकी खेलते हुए बहुत प्रयत्न करने पर भी ध्यानचन्द गोल नहीं दाग सके तो उन्होंने शिकायत की कि गोल पोस्ट को नापा जाए।नापने पर गलती पकड़ी गई । ऐसा बताया जाता है कि हिटलर ध्यानचन्द के खेल से इतना प्रभावित हुआ कि प्रशने ध्यानचन्द को प्रस्ताव दिया किअगर वह ( ध्यानचन्द ) जर्मन टीम में आना चाहता है तो उसको कर्नल की रैंक दे दी जायेगी परन्तु ध्यानचन्द ने प्रस्ताव ठुकरा दिया ।

1936 में जर्मनी के साथ एक अभ्यास मैच में जर्मन गोल कीपर ने ध्यानचन्द को टक्कर मार दी जिससे ध्यानचन्द का दांत टूट गया । चिकित्सा करा करा वापस लौटने पर अपने साथी खिलाड़ियों के साथ तय किया कि जर्मनी को सबक सिखाना चाहिए । इसके लिए गोल नहीं करने का निर्णय लिया । अब वे बॉल लेकर जर्मन गोल पोस्ट पर जाते वहाँ पर जाकर बिना गोल दागे वापस लौट आते । क्रिकेट के महान खिलाड़ी डॉन ब्राडमैन का 1935 में एडेलेड आस्ट्रेलिया में घ्यानचन्द से मिलना हुआ । उसने ध्यानचन्द की प्रशंसा करते हुए कहा कि वे ( ध्यान चन्द ) ऐसे गोल दागते हैं जैसे क्रिकेट में रनस्कोर किये जाते हैं । विएना ( ऑस्ट्रिया ) के निवासियों ने ध्यानचंद का एक स्टेच्यू स्थापित किया । जिसके चार हाथ और चारों हाथों में हॉकी स्टिक पकड़ी हुई थी ।

वे स्टेच्यू के मार्फत उनकी जादूगरी को प्रदशित कर रहे थे । नीदरलैण्ड में खेल अधिकारियों ने ध्यानचन्द की स्टिक तुड़वा कर देखा कि इसमें कहीं चुम्बक या और कोई डिवाइस तो फिट नहीं कर रखी है जो ध्यानचन्द का बॉल कण्ट्रोल करने में मदद करती हो । 

ऐसा भी बताते हैं कि ध्यानचन्द रेल की पटरी पर बॉल कण्ट्रोल करने के लिए तेज दौड़ते हुए अभ्यास करतेथे वो भी चन्द्रमा के प्रकाश में । 2014 में ध्यानचन्द ' भारतरत्न ' के सबसे श्रेष्ठ दावेदार थे । परन्तु उनके परिवार और खेल प्रेमियों को निराश होना पड़ा ।
आशा है देर है अन्धेर नहीं और विश्व के हॉकी प्रेमियों का स्वप्न पूरा होगा । आज दिनांक 06अगस्त 2021 को भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी के भारत की जनता जनभावना के अनुरूप देश के सबसे बडे खेल पुरूस्कार "राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार" के स्थान पर "मेजर ध्यानचंद खेल रत्न पुरस्कार" की घोषणा की है। 

 रिछपालसिह 

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मंगलवार, 10 अगस्त 2021

ओलंपिक और विश्वगुरू

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टोक्यो में चल रहे ओलंपिक खेलों की मेडल टैली में कल शामतक भारत अंडर 50 में भी नहीं था! फिर सूबेदार नीरज चोपड़ा ने पूरे दम के साथ भाला फेंका और हम 67वें पोजिशन से 20 अंकों की उछाल लेकर सीधे 47वें पोजिशन पर आ गए!

एक गोल्ड मैडल और 20 अंकों की उछाल!!!

138 करोड़ की आबादी वाला देश कल से सीना फुलाए घूम रहा है! क्रेडिट लेने देने की होड़ सी मची हुई है! हर किसी में सूबेदार साहब से जुड़ने की ललक दिखाई पड़ रही है! क्योंकि उन्होंने गोल्ड दिलाया है!

138 करोड़ की आबादी में मात्र एक स्वर्ण पदक!!  क्या ये गर्व का विषय है?

पदक तालिका पर नजर डालेंगें तो आप पाएंगे कि हम कुल 14 ओलंपिक पदकों (स्वर्ण, रजत और कांस्य) के साथ 47वें स्थान पर हैं!

 ....और जो देश प्रथम (चीन-38 स्वर्ण पदक)  द्वितीय (USA-36 स्वर्ण पदक व तृतीय स्थान (जापान-27 स्वर्ण पदक) पर हैं उनके सिर्फ स्वर्ण पदकों की संख्या हमसे कुल पदकों की संख्या से लगभग दो गुनी या तिगुनी है!

शीर्ष पर बढ़त बनाये हुए इन देशों के साथ ऐसा नहीं है कि वे सिर्फ खेलों में ही अच्छा कर कर रहे हैं और बाकी क्षेत्रों में फिसड्डी हैं! 

इनकी विकास दर, औद्यिगिक तकनीक, रेलवे, हाईवे,  सैन्यशक्ति ....यहाँ तक कि शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं- कुछ भी उठा लीजिये! ये देश इन क्षेत्रों में भी हमसे कई गुना बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं!

दुनिया के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय इन्ही के पास हैं!  पूरी दुनिया को बेहतर फाइटर जेट, पनडुब्बी और हवाई जहाज से मेट्रोरेल तकनीक, कंप्यूटर तकनीक और स्पेस तकनीक यही लोग मुहैया करा रहे हैं!
...और खेलों में भी इनका कोई सानी नहीं है!

इसी को सर्वांगीण विकास कहते हैं!

हम तो इनके पासंग में भी नहीं हैं! सिर्फ जनसंख्या के मामले में बढ़त बनाये हुए हैं हम!

इतने बड़े फेल्योर का जिम्मेदार किसी एक को नहीं ठहराया जा सकता! हम सब इस हमाम में नँगे हैं!

हमने कभी इन मुद्दों पर बात ही नहीं की! हम नाली, खड़ंजा, PCC रोड, वृद्धावस्था पेंशन, बेरोजगारी भत्ता, आधार, पैन, जनधन, जातिप्रमाण पत्र, आय प्रमाणपत्र, मिड डे मील में मिलने वाला अंडा, आंगनवाड़ी, भोज, भण्डारा, बोलबम, दरगाह, हिन्दू, मुसलमान, भगवा, हरा- इन्ही सब में उलझकर रह गए!

जिसका नतीजा है कि हमारी आजादी के महज दो साल पहले दो-दो परमाणु हमले झेल चुका देश आज न सिर्फ ओलंपिक की मेजबानी कर बल्कि अपनी सरजमीं पर पदक भी जीत रहा है!

...और आजादी के 74 साल बाद हमारे देश की 80 करोड़ जनता 5 किलो गेंहू के लिए लाइनों में खड़ी है! ...और ख़ुशी ख़ुशी खड़ी है! 

क्योंकि हमने न खेलों को सिरियसली लिया और न ही पढाई लिखाई और तकनीक को! जिन्होंने सिरियसली लिया वे आज हर जगह अच्छा कर रहे हैं!

इस ओलंपिक समापन के बाद हमारे खिलाडी वापस आएंगे! हर राज्य अपनी (बेशर्मी की) क्षमता के मुताबिक उनको पुरस्कृत करेगा! माननीय लोग उनके साथ फोटो खिंचवायेंगे! कुछ मनगढ़ंत कहानियां रची जाएँगी! बैनर पोस्टर बनेगा....और कुछ दिनों बाद हम सब फिर से उसी हिन्दू मुसलमान, गौरी गणेश, मुल्ला मौलवी  में उलझ जायेंगे!

लेकिन याद रखिए! खिलाड़ियों के प्रदर्शन के बदले में माननीयों द्वारा बांटे जाने वाले कैश, फ्लैट और नौकरी तथा देशवासियों द्वारा फील किया गया गर्व- ये सब दरअसल अपनी अपनी नाकामी छिपाने के तरीके हैं! इससे ज्यादा कुछ नहीं है!

...और जब तक ऐसा चलता रहेगा, विश्वगुरु सिर्फ ओलंपिक ही नहीं, हर प्रतिस्पर्धा में मेडल के लिए तरसते रहेंगे! Sabhar Facebook Wall hidu sabya samaj

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शनिवार, 7 अगस्त 2021

कार्टूनिस्ट प्राण

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चाचा चौधरी,साबू ,बिल्लू , पिंकी और रमन के अलावा मेरे जैसे अनेक जनों का ,अपने हंसाने व गुदगुदाने वाले  किरदारों के द्वारा बचपन को एक अलग ही रंगीन (रंग-बिरंगे कॉमिक्स के चित्रों द्वारा) बनाने वाले श्री प्राण कुमार शर्मा जी ,जो की विश्व भर में "कार्टूनिस्ट प्राण" के नाम से प्रसिद्ध है | आपके जैसे अनेक आर्टिस्टों व कार्टूनिस्टों ने हमें अपने अपने किरदारों के द्वारा हमारा मनोरंजन किया हैं लेकिन आपका स्थान कॉमिक्स जगत में अद्वितीय रहा हैं | आप आज हमारे बीच में नहीं है , लेकिन आपके किरदारों के द्वारा आप हमेशा से हमारे बीच मौजूद रहेंगे , किसी कमरे की किसी अलमारी में आपके किरदार सदा साथ रहेंगे 

मेरे बचपन को एक अलग आयाम देने के लिए शुक्रिया 
श्री प्राण कुमार शर्मा जी " कार्टूनिस्ट प्राण" को उनकी पुण्यतिथि पर शत् शत् नमन ❤

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बुधवार, 4 अगस्त 2021

टोक्यो ओलंपिक

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टोक्यो ओलंपिक में भारतीय पुरुष हॉकी टीम द्वारा कांस्य पदक जीतने पर सम्पूर्ण टीम को हार्दिक बधाई।
भारतीय हॉकी टीम ने नया इतिहास रचकर देशवासियों को गौरवान्वित किया है।
#Hockey 
#Olympic

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टोक्यो ओलम्पिक की महान घटना

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#टोक्यो_ओलम्पिक_की_महान_घटना 

केनिया के सुप्रसिद्ध धावक अबेल मुताई आलंपिक प्रतियोगिता मे अंतिम राउंड मे दौडते वक्त अंतिम लाइन से कुछ मिटर ही दूर थे और उनके सभी प्रतिस्पर्धी पीछे थे । अबेल ने स्वर्ण पदक लगभग जीत ही लिया था,इतनेमें कुछ गलतफहमी के कारण वे अंतिम रेखा समझकर एक मिटर पहले ही रुक गए। उनके पीछे आनेवाले #स्पेन_के_इव्हान फर्नांडिस के ध्यान मे आया कि अंतिम रेखा समझ नहीं आने की वजह से वह पहले ही रुक गए ।उसने चिल्लाकर अबेल को आगे जाने के लिए कहा लेकिन स्पेनिश नहीं समझने की वजह से वह नही हिला ।आखिर मे इव्हान ने उसे धकेलकर अंतिम रेखा तक पहूंचा दिया ।इस कारण अबेल का प्रथम तथा इव्हान का दूसरा क्रमांक आया ।पत्रकारों ने इव्हान से पूछा "तुमने ऐसा क्यों किया ?मौका मिलने के बावजूद तुमने प्रथम क्रमांक क्यों गंवाया ?" इव्हान ने कहा "मेरा सपना है कि #हम_एक_दिन_ऐसी_मानवजाति_बनाएंगे_जो_एक दूसरे को मदद करेगी ना कि उसकी भूल से फायदा उठाएगी।और मैने प्रथम क्रमांक नहीं गंवाया।" पत्रकार ने फिर कहा "लेकिन तुमने केनियन प्रतिस्पर्धी को धकेलकर आगे लाया ।" इसपर इव्हान ने कहा "वह प्रथम था ही ।यह प्रतियोगिता उसी की थी।" पत्रकार ने फिर कहा " लेकिन तुम स्वर्ण पदक जीत सकते थे" "उस जीतने का क्या अर्थ होता । मेरे पदक को सम्मान मिलता? मेरी मां ने मुझे क्या कहा होता?संस्कार एक पीढी से दूसरी पीढी तक आगे जाते रहते है ।मैने अगली पीढी को क्या दिया होता? दूसरों की दुर्बलता या अज्ञान का फायदा न उठाते हुए उनको मदद करने की सीख मेरी मां ने मुझे दी है ।" #TokyoOlympics2021 sabhar devendra Kumar Sinha Facebook wall

                     ।।🇮🇳भारत माता की जय🇮🇳।।

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शिखा बन्धन (चोटी) रखने का महत्त्व

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शिखा का महत्त्व विदेशी जान गए हिन्दू भूल गए।हिन्दू धर्म का छोटे से छोटा सिध्दांत,छोटी-से-छोटी बात भी अपनी जगह पूर्ण और कल्याणकारी हैं। छोटी सी शिखा अर्थात् चोटी भी कल्याण, विकास का साधन बनकर अपनी पूर्णता व आवश्यकता को दर्शाती हैं। शिखा का त्याग करना मानो अपने कल्याणका त्याग करना हैं। जैसे घङी के छोटे पुर्जे कीजगह बडा पुर्जा काम नहीं कर सकता क्योंकि भले वह छोटा हैं परन्तु उसकी अपनी महत्ता है। 

शिखा न रखने से हम जिस लाभ से वंचित रह जाते हैं, उसकी पूर्ति अन्य किसी साधन से नहीं हो सकती।

'हरिवंश पुराण' में एक कथा आती है हैहय व तालजंघ वंश के राजाओं ने शक, यवन, काम्बोज पारद आदि राजाओं को साथ लेकर राजा बाहू का राज्य छीन लिया। राजा बाहु अपनी पत्नी के साथ वन में चला गया। वहाँ राजा की मृत्यु हो गयी। महर्षिऔर्व ने उसकी गर्भवती पत्नी की रक्षा की और उसे अपने आश्रम में ले आये। वहाँ उसने एक पुत्र को जन्म दिया, जो आगे चलकर राजा सगर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। राजासगर ने महर्षि और्व से शस्त्र और शास्त्र विद्या सीखीं। समय पाकर राजा सगरने हैहयों को मार डाला और फिर शक, यवन, काम्बोज, पारद, आदि राजाओं को भी मारने का निश्चय किया। ये शक, यवन आदि राजा महर्षि वसिष्ठ की शरण में चले गये। महर्षि वसिष्ठ ने उन्हें कुछ शर्तों पर उन्हें अभयदान दे दिया। और सगर को आज्ञा दी कि वे उनको न मारे। राजा सगर अपनी प्रतिज्ञा भी नहीं छोङ सकते थे और महर्षि वसिष्ठ जी की आज्ञा भी नहीं टाल सकते थे। अत: उन्होंने उन राजाओं का सिर शिखा सहित मुँडवाकर उनकों छोङ दिया। 

प्राचीन काल में किसीकी शिखा काट देना मृत्युदण्ड के समान माना जाता था। बङे दुख की बात हैं कि आज हिन्दु लोग अपने हाथों से अपनी शिखा काट रहे है। यह गुलामी की पहचान हैं। 
    
शिखा हिन्दुत्व की पहचान हैं। यह आपके धर्म और संस्कृतिकी रक्षक हैं। शिखा के विशेष महत्व के कारण ही हिन्दुओं ने यवन शासन के दौरान अपनी शिखा की रक्षा के लिए सिर कटवा दिये पर शिखा नहीं कटवायी।

डा॰ हाय्वमन कहते है ''मैने कई वर्ष भारत में रहकर भारतीय संस्कृति का अध्ययन किया हैं, यहाँ के निवासी बहुत काल से चोटी रखते हैं , जिसका वर्णन वेदों में भी मिलता हैं। दक्षिण भारत में तो आधे सिर पर 'गोखुर' के समान चोटी रखते हैं । उनकी बुध्दि की विलक्षणता देखकर मैं अत्यंत प्रभावित हुआ हुँ। अवश्य ही बौध्दिक विकास में चोटी बड़ी सहायता देती हैं। सिर पर चोटी रखना बढा लाभदायक हैं। मेरा तो हिन्दु धर्म में अगाध विश्वास हैं और मैं चोटी रखने का कायल हो गया हूँ । 

"प्रसिद्ध वैज्ञानिक डा॰ आई॰ ई क्लार्क एम॰ डी ने कहा हैं " मैंने जबसे इस विज्ञान की खोज की हैं तब से मुझे विश्वास हो गया हैं कि हिन्दुओं का हर एक नियम विज्ञान से परिपूर्ण हैं। चोटी रखना हिन्दू धर्म ही नहीं, सुषुम्ना के केद्रों की रक्षा के लिये ऋषि-मुनियों की खोज का विलक्षण चमत्कार हैं।

"इसी प्रकार पाश्चात्य विद्वान मि॰ अर्ल थामस लिखते हैं की "सुषुम्ना की रक्षा हिन्दु लोग चोटी रखकर करते हैं जबकि अन्य देशों में लोग सिर पर लम्बे बाल रखकर या हैट पहनकर करते हैं। इन सब में चोटी रखना सबसे लाभकारी हैं। किसी भी प्रकार से सुषुम्ना की रक्षा करना जरुरी हैं।

"वास्तव में मानव-शरीर को प्रकृति ने इतना सबल बनाया हैं की वह बड़े से बड़े आघात को भी सहन करके रह जाता हैं परन्तु शरीर में कुछ ऐसे भी स्थान हैं जिन पर आघात होने से मनुष्य की तत्काल मृत्यु हो सकती हैं। इन्हें मर्म-स्थान कहाजाता हैं। 

शिखा के अधोभाग में भी मर्म-स्थान होता हैं, जिसके लिये सुश्रुताचार्य ने लिखा है मस्तकाभ्यन्तरोपरिष्टात् शिरासन्धि सन्निपातो।

रोमावर्तोऽधिपतिस्तत्रपि सद्यो मरणम्।
अर्थात् मस्तक के भीतर ऊपर जहाँ बालों का आवर्त(भँवर) होता हैं, वहाँ संपूर्ण नाङियों व संधियों का मेल हैं, उसे 'अधिपतिमर्म' कहा जाता हैं।यहाँ चोट लगने से तत्काल मृत्यु हो जाती हैं(सुश्रुत संहिता शारीरस्थानम् : ६.२८)

सुषुम्ना के मूल स्थान को 'मस्तुलिंग' कहते हैं। मस्तिष्क के साथ ज्ञानेन्द्रियों कान, नाक, जीभ, आँख आदि का संबंध हैं और कामेन्द्रियों - हाथ, पैर, गुदा, इन्द्रिय आदि का संबंध मस्तुलिंग से हैं मस्तिष्क व मस्तुलिंग जितने सामर्थ्यवान होते हैं उतनी ही ज्ञानेन्द्रियों और कामेन्द्रियों - की शक्ति बढती हैं। मस्तिष्क ठंडक चाहता हैं और मस्तुलिंग गर्मी मस्तिष्क को ठंडक पहुँचाने के लिये क्षौर कर्म करवाना और मस्तुलिंग को गर्मी पहुँचाने के लिये गोखुरके परिमाण के बाल रखना आवश्यक होता है।

बालकुचालक हैं, अत: चोटी के लम्बे बाल बाहर की अनावश्यक गर्मी या ठंडक से मस्तुलिंग की रक्षा करते हैं। 

शिखा रखने के अन्य निम्न लाभ बताये गये हैं।
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१ शिखा रखने तथा इसके नियमों का यथावत् पालन करने से सद्‌बुद्धि , सद्‌विचारादि की प्राप्ति होती हैं।

२ आत्मशक्ति प्रबल बनती हैं।

३ मनुष्य धार्मिक , सात्विक व संयमी बना रहता हैं।

४ लौकिक - पारलौकिक कार्यों मे सफलता मिलती हैं।

५सभी देवी देवता मनुष्य की रक्षा करते हैं।

६ सुषुम्ना रक्षा से मनुष्य स्वस्थ, बलिष्ठ, तेजस्वी और दीर्घायु होता हैं।

७ नेत्र्ज्योति सुरक्षित रहती हैं।

इस प्रकार धार्मिक, सांस्कृतिक, वैज्ञानिक सभी दृष्टियों से शिखा की महत्ता स्पष्ट होती हैं। परंतु आज हिन्दू लोग पाश्चात्योंके चक्कर में पड़कर फैशनेबल दिखने की होड़ में शिखा नहीं रखते व अपने ही हाथों अपनी संस्कृति का त्याग कर डालते हैं।

लोग हँसी उड़ाये, पागल कहे तो सब सह लो पर धर्म का त्याग मत करो। मनुष्य मात्र का कल्याण चाहने वाली अपनी हिन्दू संस्कृति नष्ट हो रही हैं। हिन्दु स्वयं ही अपनी संस्कृति का नाश करेगा तो रक्षा कौन करेगा।

वेद में भी शिखा रखने का विधान कई स्थानों पर मिलता है,देखिये।

शिखिभ्यः स्वाहा (अथर्ववेद १९-२२-१५)

अर्थ👉 चोटी धारण करने वालों का कल्याण हो।

यशसेश्रियै शिखा।-(यजु० १९-९२)
अर्थ 👉 यश और लक्ष्मी की प्राप्ति के लिए सिर पर शिखा धारण करें।

याज्ञिकैंगौर्दांणि मार्जनि गोक्षुर्वच्च शिखा। (यजुर्वेदीय कठशाखा)

अर्थात्👉  सिर पर यज्ञाधिकार प्राप्त को गौ के खुर के बराबर(गाय के जन्में बछड़े के खुर के बराबर) स्थान में चोटी रखनी चाहिये।

केशानां शेष करणं शिखास्थापनं।
केश शेष करणम् इति मंगल हेतोः ।। sabhar dev sharma Facebook wall
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बद्रीनाथ धाम का ब्रह्मकपाल तीर्थ

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ब्रह्मकपाल तीर्थ का महत्त्व
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बद्रीनाथ धाम का ब्रह्मकपाल तीर्थ गया से आठ गुना फलदायी है।

पिंड दान के लिए भारतवर्ष क्या दुनियाँ भर से हिंदू  प्रसिद्ध गया पहुँचते हैं, लेकिन *एक तीर्थ ऐसा भी है जहाँ पर किया पिंडदान गया से भी आठ गुणा फलदायी है।*
चारो धामों में प्रमुख उत्तराखंड के बदरीनाथ के पास स्थित ब्रह्माकपाल के बारे में मान्यता है कि यहाँ पर पिंडदान करने से पितरों की आत्मा को नरकलोक से मुक्ति मिल जाती है। स्कंद पुराण में ब्रह्मकपाल को गया से आठ गुणा अधिक फलदायी पितरकारक तीर्थ कहा गया है।
सृष्टि की उत्पत्ति के समय जब तीन देवों में ब्रह्मा जी, अपने द्वारा उत्तपत्तित कन्या के रुप पर मोहित हो गए थे, उस समय भोलेनाथ ने गुस्से में आकर ब्रह्मा के सिरों में से एक को त्रिशूल के काट दिया था। 
इस प्रकार शिव पर ब्रह्म हत्या का पाप लग गया था और वह कटा हुआ सिर शिवजी के हाथ पर चिपक गया था। ब्रह्मा की हत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिए जब भोलेनाथ पूरी पृथ्वी लोक के भ्रमण पर गए परन्तु कहीं भी ब्रह्म हत्या से मुक्ति नही मिली।
भृमण करते करते शिवजी बदरीनाथ पहुँचे वहाँ पर ब्रह्मकपाल शिला पर शिवजी के हाथ से ब्रह्माजी का सिर जमीन पर गिर गया और शिवजी को ब्रह्म हत्या से मुक्ति मिली। तभी से यह स्थान ब्रह्मकपाल के रुप में प्रसिद्ध हुआ। ब्रह्मकपाल शिला के नीचे ही ब्रह्मकुण्ड है जहाँ पर ब्रह्मा जी ने तपस्या की थी।
शिवजी ने ब्रह्महत्या से मुक्त होने पर इस स्थान को वरदान दिया कि यहाँ पर जो भी व्यक्ति श्राद्ध करेगा उसे प्रेत योनी में नहीं जाना पड़ेगा एवं उनके कई पीढ़ियों के पितरों को मुक्ति मिल जाएगी। पुराणों में बताया गया है कि उत्तराखंड की धरती पर भगवान बद्रीनाथ के चरणों में बसा है ब्रह्म कपाल। अलकनंदा नदी ब्रह्मकपाल को पवित्र करती हुई यहाँ से प्रवाहित होती है। इस स्थान के विषय में मान्यता है कि इस स्थान पर जिस व्यक्ति का श्राद्ध कर्म होता है उसे प्रेत योनी से तत्काल मुक्ति मिल जाती है और भगवान विष्णु के परमधाम में उसे स्थान प्राप्त हो जाता है। जिस व्यक्ति की अकाल मृत्यु होती है उसकी आत्मा व्याकुल होकर भटकती रहती है। ब्रह्म कपाल में अकाल मृत्यु प्राप्त व्यक्ति का श्राद्ध करने से आत्मा को तत्काल शांति और प्रेत योनी से मुक्ति मिल जाती है।
भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत युद्ध के समाप्त होने के बाद पाण्डवों को ब्रह्मकपाल में जाकर पितरों का श्राद्ध करने का निर्देश दिया था। इसलिये भगवान श्रीकृष्ण कीआज्ञा मानकर पाण्डव बद्रीनाथ की शरण में गए और ब्रह्मकपाल तीर्थ में पितरों एवं युद्ध में मारे गए सभी लोगों के लिए श्राद्ध किया। पुराणों में बताया गया है कि उत्तराखंड की भूमि पर बद्रीनाथ धाम में बसा है ब्रह्मकपाल तीर्थ, जिसको अलकनंदा नदी पवित्र करती हुई प्रवाहित होती है। इस स्थान के विषय में मान्यता है कि इस स्थान पर जिस व्यक्ति का श्राद्ध कर्म होता है उसे प्रेत योनि से तत्काल मुक्ति मिल जाती है और वह भगवान विष्णु के परमधाम में स्थान प्राप्त करता है। जिस व्यक्ति की अकाल मृत्यु होती है और उसकी आत्मा व्याकुल होकर भटकती रहती है उस व्यक्ति का श्राद्ध ब्रह्मकपाल तीर्थ पर करने से उस की आत्मा को तत्काल शान्ति मिलती है और प्रेत योनि से मुक्ति मिल जाती है।
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मंगलवार, 3 अगस्त 2021

दुनिया कितनी ख़ूबसूरत है ओलंपिक से सीखें

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दुनिया कितनी ख़ूबसूरत है ओलंपिक से सीखें

केन्या  के सुप्रसिद्ध धावक अबेल मुताई ओलंपिक प्रतियोगिता के अंतिम राउंड में दौड़ते वक्त अंतिम लाइन से एक मीटर दूर रह गये थे। उनके सभी प्रतिस्पर्धी पीछे थे। अबेल ने स्वर्ण पदक लगभग जीत ही लिया था, इतने में कुछ गलतफहमी के कारण वे अंतिम रेखा समझकर एक मीटर पहले ही रुक गए। उनके पीछे आने वाले स्पेन के इव्हान फर्नांडिस ने देखा अंतिम रेखा समझ नहीं आने की वजह से वह पहले ही रुक गए। उन्होंने  चिल्लाकर अबेल को आगे जाने के लिए कहा। लेकिन स्पेनिश नहीं समझने की वजह से वह नहीं हिले।आखिर में इव्हान ने उसे धकेलकर अंतिम रेखा तक पहुंचा दिया। इस कारण अबेल का प्रथम तथा इव्हान का दूसरा स्थान आया। 
पत्रकारों ने इव्हान से पूछा, तुमने ऐसा क्यों किया ? मौका मिलने के बावजूद तुमने प्रथम क्रमांक क्यों गंवाया ?
इव्हान ने कहा मेरा सपना है हम एक  दिन ऐसी मानवजाति बनाएंगे जो एक दूसरे को मदद करेगी न कि उसकी भूल से फायदा उठाएगी। और मैंने प्रथम स्थान नहीं गंवाया।" 
पत्रकार ने फिर कहा लेकिन तुमने केनियन प्रतिस्पर्धी को धकेलकर आगे लाया।
इसपर इव्हान ने कहा वह प्रथम था ही। यह प्रतियोगिता उसी की थी।
पत्रकार ने फिर कहा, लेकिन तुम स्वर्ण पदक जीत सकते थे।
इव्हान ने कहा, उस जीतने का क्या अर्थ होता। मेरे पदक को सम्मान मिलता ? मेरी मां ने फिर मुझे क्या कहा होता ? 
संस्कार एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक आगे जाते हैं। मैंने अगली पीढ़ी को क्या दिया होता ? दूसरों की दुर्बलता या अज्ञान का फायदा न उठाते हुए उनको मदद करने की सीख मेरी मां ने मुझे दी है।

...और यह दूसरी कहानी

टोक्यो ओलंपिक में पुरुषों की हाई जम्प फाइनल में इटली के जियानमारको ताम्बरी का सामना क़तर के मुताज़ इसा बर्शिम से हुआ। दोनों ने 2.37 मीटर की छलांग लगाई और बराबरी पर रहे। उसके बाद ओलंपिक अधिकारियों ने उनमें से प्रत्येक को तीन और प्रयास दिए, लेकिन वे 2.37 मीटर से अधिक तक नहीं पहुंच पाए।
उन दोनों को एक और प्रयास दिया गया, लेकिन उसी वक़्त टाम्पबेरी पैर में गंभीर चोट के कारण अंतिम प्रयास से पीछे हट गए। यह वह क्षण था जब मुताज़ बरशिम के सामने कोई दूसरा विरोधी नहीं था औऱ उस पल वह आसानी से अकेले सोने के क़रीब पहुंच सकते थे!

लेकिन बर्शिम के दिमाग में कुछ घूम रहा था औऱ फ़िर कुछ सोचकर उसने एक अधिकारी से पूछा, "अगर मैं भी अंतिम प्रयास से पीछे हट जाऊं तो क्या हम दोनों के बीच गोल्ड मैडल साझा किया जा सकता है?" 

कुछ देर बाद एक आधिकारी जाँच कर पुष्टि करता है और कहता है "हाँ बेशक गोल्ड आप दोनों के बीच साझा किया जाएगा"। 

बर्शिम के पास और ज्यादा सोचने के लिए कुछ नहीं था । उसने आखिरी प्रयास से हटने की घोषणा की।

यह देख इटली का प्रतिद्वन्दी ताम्बरी दौड़ा और मुताज़ बरसीम को गले लगा कर चिल्लाया ! दोनों भावुक होकर रोने लगे ।

लोगों ने जो देखा वह खेलों में प्यार का एक बड़ा हिस्सा था जो दिलों को छूता है। यह अवर्णनीय खेल भावना को प्रकट करता है जो धर्मों, रंगों और सीमाओं को अप्रासंगिक बना देता है !!!

इसी दुनिया मे लोग सुख दुख साझा करने से डरते है और कुछ महान लोग गोल्ड मेडल तक साझा कर रहे हैं।
इंसानका किरदार किसी भी मैडल से बड़ा है। sabhar mahesh pratap singh zonal coordinator paprika.com

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गुरुवार, 29 जुलाई 2021

खजुराहो का रहस्य

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वास्तव में खजुराहो भारतीय दर्शन कि सम्पूर्ण व्याख्या है।

भारत अपने शास्त्रों से ही नहीं , कला के सभी माध्यमों से धर्म को परिभाषित किया है।

भारत कभी भी निषेध का समर्थन नहीं करता ।
जो निषिद्ध है , उसके पार जाना है।
एक बड़ी प्राचीन कहावत है -
स्वर्ग का रास्ता नर्क से गुजरता है।
नर्क को निषेध नहीं किया गया , उससे आगे बढ़ना है।

क्षत्रियों के दो वंशजों कि अभिव्यक्ति में थोड़ा भेद है।
सूर्यवंशी क्षत्रिय अपनी स्थापत्य निर्माण में धर्म को अभिव्यक्त करने के लिये कला में मर्यादा का अनुसरण किये है।

चंद्रवंशी क्षत्रिय अपने स्थापत्य निर्माण में कला के सभी रूपों को माध्यम बनाये है।
लेकिन संदेश और दर्शन एक ही है।
खुजराहो के मंदिर चन्द्रवंशी क्षत्रियों ने बनाया है। अपनी परंपरा के आधार पर धर्म को व्यक्त करने के लिये, कला के उस स्वरूप को माध्यम बनाया है जिसे मर्यादा के बंधनों से मुक्त रखा गया है।

काम ! भारत मे निषेध नहीं था, हो भी नहीं सकता।
हिंदू दर्शन में काम को एक पुरुषार्थ माना गया है - धर्म , अर्थ , काम , मोक्ष।
अंतिम लक्ष्य मोक्ष ही है। 
मोक्ष प्राप्त के लिये काम का निषेध नहीं किया जा सकता। उससे पार जाना होगा।

खजुराहो के मंदिरों की एक विशेषता है।
कामकला को मंदिरों के वाह्य भाग पर दिखाया गया है।
अंदर गर्भगृह में ईश्वर को स्थापित किया गया है।
आंतरिक भाग में एक भी कामकला का चित्रण नहीं है।
वाह्य से अंदर जाने के लिये काम को पार करना होगा !
तभी ईश्वर तक पहुँच सकते है।

खजुराहो के मंदिर हिंदू दर्शन के इसी चिंतन को प्रतिबिंबित करते है। अभिव्यक्ति का माध्यम निर्माण करने वाले चन्द्रवंशी क्षत्रियों की परंपरा है। लेकिन दर्शन वही है, जो उपनिषद कहता है - ईश्वर तक जाने के लिये सांसारिक प्राकृतिक बाधाओं से आगे बढ़ना होगा...
साभार- Ravishankar Singh

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मंगलवार, 27 जुलाई 2021

-आत्म-साक्षात्कार के लिए चित्त अनिवार्य है

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परम श्रद्धेय ब्रह्मलीन पण्डित अरुण कुमार शर्मा काशी की अद्भुत अध्यात्म-ज्ञानगंगा में पावन अवगाहन

     योगमार्ग का परम लक्ष्य है--आत्म-साक्षात्कार। आत्मा का स्वरूप शुद्ध, बुद्ध और चैतन्य है लेकिन उसका साक्षात्कार सीधा नहीं होता। जिस चित्त के पीछे इतना बवंडर मचाया जाता है, उसे इतना बुरा-भला कहा जाता है और कोसा जाता है, यदि हम उसकी वास्तविकता को जान लेंगे तो आश्चर्य होगा। चित्त जिसे हम चंचल कहकर हेय दृष्टि से देखते हैं, सारी सांसारिकता के लिए जिम्मेदार ठहराते हैं और चित्तदशा को शान्त और स्थिर करने के लिए ध्यान और योगाभ्यास करते हैं। मगर क्या हमने कभी सोचा है कि यदि यही  चित्त न होता तो क्या होता ? चित्त न होता तो मानव न होता, मानव योनि में जीव का जन्म ही न होता। मानव शरीर धारण करने लिए चित्त(मन) का होना अनिवार्य है। मन एक तत्व है--एक अनिवार्य तत्व। मन है उसके पास तभी तो वह मनुष्य है। मन मनुष्य के अलावा और किसी प्राणी के पास नहीं है। यहाँतक कि देवोँ के पास भी नहीं है। चित्त नहीं होता तो आत्म साक्षात्कार भी न होता। आत्म साक्षात्कार कभी सीधा नहीं होता। यही चित्त साक्षात्कार का मार्ग बनता है, साधन बनता है और बनता है एक माध्यम। यह सही है कि चित्त की चंचलता के कारण आत्मा की यथावत अनुभूति नहीं हो पाती और चित्त की इस चंचलता का मूल कारण हैं--काम, क्रोध आदि वासनायें जो वृत्तियों का स्थायी रूप धारण कर लेती हैं और कारण हैं --पूर्व संस्कारों के मल भी। इन दोषों को 'विक्षेप' कहते हैं। जबतक यह विक्षेप रहेगा, चित्त चंचल रहेगा और आत्मानुभूति नहीं हो सकेगी। जैसे भूमि पर गिरने से उठने के लिए भूमि का ही सहारा लेना पड़ता है, काम के अतिक्रमण के लिए काम को सहायक बनाना पड़ता है, उसी तरह चित्त को शान्त और स्थिर करने के लिए चित्त के आश्रय में जाना पड़ता है। आत्मानुभूति सीधे नहीं, चित्त के माध्यम से ही होती है। बस, उसकी चंचलता को योगाभ्यास से दूर करना होता है। चित्त की वृत्तियाँ तालाब में उठी लहरों के समान होती हैं तो लहरों को शान्त करने के लिए तालाब को मिटाना या सुखाना मूर्खता के सिवाय और क्या होगा ? चित्त की वृत्तियों को निरूद्ध करने के बाद चित्त में फिर आत्मा को आवृत करने की शक्ति नहीं रह जाती। योग कोई बाहर से नयी शक्ति प्रदान नहीं करता, वह तो जो हमारे भीतर है, उसे ही निकाल देता है। आत्मदर्शन और आत्म साक्षात्कार के मार्ग में चित्त के द्वारा उत्पन्न की गयी बाधा को दूर करता है।
       योग भारतीय दर्शन की वह दृष्टि है जिसने मानव जीवन को शब्दाडंबर से अलग रखा और उसको एक गंभीरता प्रदान की। उसको प्रयोग दिया, क्रिया दी। योग के द्वारा आत्मदर्शन करना सबसे बड़ा धर्म है और परम लक्ष्य भी।
       प्रायः यह शंका हो सकती है कि अध्यात्म से तो योग का सम्बन्ध है पर धर्म से उसका कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है। धर्म तो आचरण का विषय है, सदाचार का विषय है। मनुस्मृति में कहा गया है--

        "अयं तु परमो धर्म: यद्योगेनात्म दर्शनम्।"

        अर्थात्-- योग के माध्यम से आत्मा के दर्शन करना परम धर्म है। इससे योग और धर्म की प्रगाढ़ता का प्रमाण मिल जाता है, जिसे कोई सहज नकार नहीं सकता।

Shiv Ram Tiwari

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मंगलवार, 20 जुलाई 2021

विदेश भेजी जाती थीं पोर्न फिल्में

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#मुम्बई - #वी #ट्रांसफर के जरिए #विदेश भेजी जाती थीं #पोर्न #फिल्में, #राज #कुंद्रा ऐसे चलाते थे ये #गोरखधंधा

शिल्पा शेट्टी के पति राज कुंद्रा को पोर्न फिल्में बनाने और एप पर अपलोड करने के मामले में गिरफ्तार किया गया है।मुंबई क्राइम ब्रांच के मुताबिक, राज कुंद्रा ने पोर्न इंडस्ट्री में 8-10 करोड़ रुपये का निवेश किया था।क्राइम ब्रांच ने सोमवार को पहले राज कुंद्रा को पूछताछ के लिए बुलाया था और इसके बाद उन्हें गिरफ्तार किया गया।

क्राइम ब्रांच का कहना है कि फरवरी 2021 में क्राइम ब्रांच ने मुंबई में अश्लील फिल्म बनाने और उन्हें कुछ एप्स पर दिखाने का मामला दर्ज किया था।मुंबई क्राइम ब्रांच ने कहा है कि राज कुंद्रा इस पूरे मामले के मास्टर माइंड हैं।

#राज कुंद्रा और उनके ब्रिटेन में रह रहे भाई ने केनरिन नाम की एक कंपनी बनाई है।जिसपर पोर्न फिल्में दिखाई जाती हैं।फिल्मों के वीडियो भारत में शूट किए जाते थे और वी ट्रांसफर के जरिए उन्हें विदेश भेजा जाता था।

#इस कंपनी का राज कुंद्रा ने विदेश में रजिस्ट्रेशन इसलिए करवाया ताकि साइबर लॉ से बच सकें।इन फिल्मों को पेड मोबाइल एप्लिकेशन पर रिलीज किया गया था।

#होटल्स और घरों को किराये पर लेकर इनमें पोर्न फिल्में शूट की जाती थीं। मॉडल्स को काम देने के बहाने इन अश्लील फिल्मों में काम कराया जाता था।इसके बाद लोगों से फिल्म दिखाने के लिए पैसे लिए जाते थे।

#जांच में ये भी सामने आया है कि लड़कियों को बड़ी फिल्मों में काम दिलाने के बहाने उनसे जबरन अश्लील फिल्मों में काम करवाया जाता था।

#पुलिस का कहना है कि उनके पास राज कुंद्रा के खिलाफ न सिर्फ आरोपियों के बयान हैं, बल्कि टेक्नीकल सबूत भी हैं।

#पोर्नोग्राफी मामलों में अक्सर आरोपी के खिलाफ आईटी एक्ट और आईपीसी की धाराओं में मामला दर्ज किया जाता है।इस केस में अगर कोई दोषी साबित होता है तो उसे कई साल जेल में भी बिताने पड़ते हैं।

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असली विरोध तो प्रेम और भय में है

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प्रेम के साथ घृणा चल सकती है, कुछ अड़चन नहीं है। लेकिन प्रेम के साथ भय कभी नहीं चलता; इसलिए असली विरोध तो प्रेम और भय में है। जहां प्रेम आया, भय गया। जहां भय आया वहां प्रेम गया।

मैंने सुना है, एक जापानी कथा है: एक युवक विवाह करके…एक योद्धा विवाह करके अपने घर लौट रहा है–अपनी नववधू को लेकर। नाव पर दोनों सवार हैं। तूफान आ गया है। नाव डांवाडोल हो रही है–अब गई, तब गई! लेकिन वह युवक निश्चिंत बैठा है। वह पत्नी उसकी घबड़ाने लगी। वह कंपने लगी। उसने उससे कहा, तुम इस तरह निश्चिंत बैठे हो जैसे कुछ भी नहीं हो रहा है! देखते नहीं कि नाव डूबी, अब बचना मुश्किल है। अभी हम विवाहित ही हुए थे, अभी विवाह का सुख भी न जाना था–और ये कैसे दुर्दिन आ गए! यह कैसी दुर्घटना हुई जा रही है। तुम बैठे क्यों हो? तुम ऐसे निश्चिंत बैठे हो जैसे घर में बैठे हो, जैसे कुछ भी नहीं हो रहा!

उस युवक ने अपने म्यान से तलवार निकाल ली–और तलवार उस युवती के, अपनी पत्नी के गले के पास ले गया। ठीक बिलकुल पास ले गया। ठीक बिलकुल पास ले गया कि जरा बाल भर का फासला रह गया। जरा-सी चोट की कि गरदन अलग हो जाए। वह युवती हंसने लगी। उस युवक ने कहा, तू हंसती है? घबराती नहीं? तलवार तेरी गरदन पर है–नंगी तलवार; जरा-सा इशारा और तू गई। घबराती नहीं?

उसने कहा, क्या घबड़ाना? तलवार जब तुम्हारे हाथ में है…।

उस युवक ने कहा, यही मेरा उत्तर है। जब तूफान परमात्मा के हाथ में है तो क्या घबड़ाना?

तलवार उसने वापिस म्यान में रख ली। इधर वह तलवार म्यान में वापिस रख रहा था कि उधर तूफान भी म्यान में वापिस रख लिया गया।

प्रेम जहां है वहां भय नहीं। इसलिए भक्त से ज्यादा निर्भय कोई भी नहीं होता जिसको तुम ध्यानी कहते हो, वह भी डरा रहता है–बहुत बार डरा रहता है कि कहीं यह न चूक जाए, कहीं यह भूल न हो जाए, कहीं यह पाप न हो जाए,कहीं यह नियम उल्लंघन न हो जाए!

बुद्ध के भिक्षु के लिए तैंतीस हजार नियम! सोचो, चिंता तो रहती होगी–तैंतीस हजार नियम! याद ही रखना मुश्किल है; कुछ न कुछ तो भूल होने ही वाली है। नरक निश्चित ही है। तैंतीस हजार नियम हों तो नरक से बचोगे कैसे?

लेकिन प्रेमी को कोई भय नहीं। वह कहता है, तुम जानो। अगर भूल करवानी हो भूल करवा लेना; अगर न करवानी हो मत करवाना।

भक्त का अभय पूरा है; समग्र है।
ओशो

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रविवार, 11 जुलाई 2021

क्या है आत्म-अनुभूति योग का रहस्य ?-

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क्या है विज्ञानमय कोश /WISDOM BODY की   साधना का रहस्य ?PART-04


1-मन और आत्मा चेतना के दो रूप है।ये मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त और आत्मा अलग अलग  नही हैं ।जब सागर में तूफान आ जाए, तो तूफान और सागर एक होते हैं। वास्तव में , जब  सागर विक्षुब्ध हो जाता है तो हम कहते हैं, तूफान है। आत्मा जब विक्षुब्ध हो जाती है तो हम कहते हैं, मन है; और मन जब शांत हो जाता है तो हम कहते हैं, आत्मा है।मन जो है वह आत्मा की विक्षुब्ध अवस्था है; और आत्मा जो है वह मन की शांत अवस्था है।चेतना जब हमारे भीतर विक्षुब्ध है,  तूफान से घिरी है, तब हम इसे मन कहते हैं। इसलिए जब तक आपको मन का पता चलता है; तब तक आत्मा का पता न चलेगा। और इसलिए ध्यान में मन खो जाता है। इसका मतलब, वे जो लहरें आत्मा पर उठ रही थीं, सो जाती हैं, वापस शांति हो जाती है। तब आपको पता चलता है कि मैं आत्मा हूं। जब तक विक्षुब्ध /Disturbed हैं तब तक पता चलता है कि मन है। विक्षुब्ध मन बहुत रूपों में प्रकट होता है--कभी अहंकार की तरह, कभी बुद्धि की तरह, कभी चित्त की तरह--तो विक्षुब्ध/Disturbed मन के अनेक चेहरे हैं। 
 2-आत्मा और मन अलग नहीं, आत्मा और शरीर भी अलग नहीं; क्योंकि तत्व तो एक है, और उस एक के सारे के सारे रूपांतरण हैं। और उस एक को जान लें तो फिर कोई झगड़ा नहीं है--शरीर से भी नहीं, मन से भी नहीं। उस एक को एक बार पहचान लें तो फिर वही है--फिर रावण में भी वही है, फिर राम में भी वही है। फिर ऐसा नहीं है कि राम को नमस्कार कर आएंगे और रावण को जला आएंगे; ऐसा नहीं। फिर दोनों को ही नमस्कार कर आएंगे, या दोनों को ही जला आएंगे; क्योंकि दोनों में वही है।तत्व एक है,लेकिन  अभिव्यक्तियां अनंत हैं; एक है सत्य,लेकिन रूप अनेक हैं ; एक है अस्तित्व, लेकिन बहुत हैं उसके चेहरे, मुद्राएं।साधना का प्रयोजन यह है कि “हम अपने वास्तविक स्वरूप को समझें, आत्मा का दर्शन और अनुभव करें एवं विचार और कार्यों को उस ढाँचे में ढालें जो आत्मा की रुचि के अनुरूप हो। 
3-आत्म दर्शन के लिए इस प्रकार के विचार और विश्वासों को मन में स्थान देना चाहिए कि ‘मैं शरीर नहीं आत्मा हूँ।” अपने अहम् को शमार से भिन्न अविनाशी आत्मा और शरीर मन बुद्धि को अपना औजार समझने की मान्यता जब सुदृढ़ हो जाती है तो मनुष्य उसी ढाँचे में ढलने लगता है जो आत्मा के स्वार्थ एवं गौरव के अनुरूप है। आमतौर से सभी लोग यह जानते हैं कि प्राणी शरीर से भिन्न है। पर यह उनका ज्ञान मस्तिष्क के अग्रभाव तक ही सीमित होता है। वे इस तथ्य को जानते तो हैं पर मानते नहीं। व्यवहार में लोग अपने को शरीर ही अनुभव करते हैं और शरीर को जिन कामों में लाभ होता है ,सुख मिलता है, मनोरंजन होता है- उन्हें करने के लिए दिन रात लगे रहते हैं। धन कमाने में और इन्द्रिय भोगों में आमतौर से लोगों का समय खर्च होता है। जिन चिन्ताओं में व्यस्त रहते हैं ;वे शरीर के लाभ हानि से ही सम्बन्धित होती हैं। शरीर के लिए आत्मा की परवाह नहीं की जाती, पाप, अनीति, छल, दुराचार असत्य को अपनाकर भी लोग स्वार्थ साधन करते हैं.. वह शरीर से ही सम्बन्धित होते हैं।
 4-जन साधारण का स्वार्थ शरीर स्वार्थ से ही सम्बन्धित होता है। संसार में शरीर को ही ‘मैं’ समझने की आम प्रवृत्ति है। ‘मैं’ का अर्थ आत्मा है इसे जानते जरूर हैं पर व्यवहार में मानते यह हैं कि ‘मैं’ का अर्थ है- मेरा शरीर। इस दृष्टि कोण से जीवन की गतिविधि में भारी अन्तर आ जाता है। आत्मवादी और भौतिक दृष्टि कोण में वैसे बहुत थोड़ा अन्तर दिखाई पड़ता है पर अन्तर के कारण जो परिणाम उपस्थित होते हैं। उनमें उतना ही भेद होता है जितना आकाश पाताल में। रेल की पटरी में लाइन बदलने की कैंची जहाँ लगी होती है वहाँ कोई बहुत भारी अन्तर दिखाई नहीं देता पर जब एक गाड़ी एक तरफ की गुजरती है और दूसरी गाड़ी दूसरी तरफ से तो अन्त में जब चलते-चलते दोनों गाड़ियाँ पहुँचती हैं उन स्थानों में सैंकड़ों हजारों मील का अन्तर होता है। एक पूर्व में पहुँचती है तो दूसरी पश्चिमी में, कैंची के काटने में दो चार अंगुल का फर्क होता है पर अन्त में उसका प्रतिफल बहुत ही भिन्न होता है। ठीक यही हालत आत्मिक और भौतिक दृष्टिकोणों के बीच में है। जो व्यक्ति अपने को आत्मा मानता है वह अपना स्वार्थ उसे समझता है.. जिससे आत्मकल्याण होता है। वह आत्मकल्याण करने वाले विचार और कार्यों को अपनाता है। 
5-असंख्य मनुष्य स्वर्ग- नरक की, मुक्ति- बंधन की चिन्ता न करके आत्म हनन करते हुए भौतिक संपदायें कमाते हैं जिससे उनको मनोवाँछित सुख सामग्री प्राप्त हो सके। ‘मैं शरीर हूँ' इसलिए शरीर सुख के लिए धर्म अधर्म की परवाह न करता हुआ भौतिक संपदाएं कमाता है  उसी के लिए जीवन का प्रत्येक क्षण लगाता है ।आज के इस लोकव्यापी दृष्टिकोण में परिवर्तन किये बिना कोई मनुष्य, कोई समाज, कोई राष्ट्र, सुख शान्ति से नहीं रह सकता। “मैं आत्मा हूँ, ईश्वर का अविनाशी राजकुमार हूँ, अपने औजार शरीर और मन का उपयोग केवल उन्हीं कार्यों में करूंगा -जो मेरे गौरव के, धन के, कर्तव्य के, अनुकूल हैं।” यह आध्यात्मिक दृष्टिकोण जिन व्यक्तियों ने अपना लिया है उनका जीवन क्रम एक सतोगुणी ढाँचे में ढल जाता है। भौतिक दृष्टिकोण मनुष्य को चिन्ता, क्रोध, शोक, द्वेष, कलह, ईर्ष्या, मद, प्रस्तर, मोह, रोग, उद्वेग आवेश का नारकीय प्रतिफल उपस्थित करता है और आत्मिक दृष्टिकोण के कारण प्रेम सहयोग, प्रसन्नता, साहस, अभय, सन्तोष एवं सात्विक आनन्द का उपहार प्राप्त होता है। इनमें एक को नरक और दूसरे को स्वर्ग कहा जा सकता है। 
6-योग साधना द्वारा स्वर्गीय आनन्द की प्राप्ति की जाती है। इस साधना मंदिर का पहिला द्वार आत्म जागरण है। ‘मैं आत्मा हूँ- इस भाव का अन्तःकरण में प्रत्यक्ष होना उस पर पूर्ण श्रद्धा, विश्वास, निष्ठा तथा इस आस्था का होना साधना का प्रयोजन है। सोते जागते, चलते, काम करते, साधक के मन में यह गहरा विश्वास होना चाहिए कि ''मैं ईश्वर का पवित्र अंश अविनाशी आत्मा हूँ केवल वही विचार और कार्य अपनाऊँगा जो मेरे वास्तविक आत्मिक स्वार्थ के अनुकूल हैं।” यह छोटी शब्दावली एक कागज पर लिखकर उस स्थान पर आत्म जागरण योग  टाँग लेनी चाहिए जहाँ बराबर नजर पड़ती हो। इन भावनाओं को जितनी अधिक बार हो सके मानसिक जप की तरह हृदयंगम करना चाहिए। लगातार बहुत दिनों तक इस तथ्य पर अन्तःकरण को केन्द्रित करने से मन पर वैसे ही संस्कार जम जाते हैं और साधक अपने वास्तविक स्वरूप को समझ जाता है। इसको आत्मिक भूमिका का जागरण कहते हैं। 
7-आत्म-अनुभूति/आत्मज्ञान शास्त्र से नहीं, स्वयं से उत्पन्न होता है ; शब्द से नहीं, निशब्द से उत्पन्न होता है ; विचार से नहीं निर्विचार से उत्पन्न होता है। आत्मज्ञान विकल्पों के इकट्ठा करने से नहीं निर्विकल्प समाधि में समाधान में उत्पन्न होता है। इसलिए शास्त्र आत्मज्ञता नहीं देता, स्वयं का बोध ही, स्वयं के प्रति जागना ही आत्मज्ञान है। इंजीनियरिंग , डाक्टरी पढ़नी हो शास्त्रज्ञान से हो जाएगा। पर स्व के संबंध में  बोध शास्त्र से नहीं हो सकता। शास्त्र तो विचार को परिपक्व कर देंगे। आत्मज्ञान तो विचार के टूटने से होता है। शास्त्र तो बुद्धि को एक विशिष्ट तर्क भर देंगे और आप सोचते हैं कि आपको  आत्मा का ज्ञान हो गया है तो आप भी गलती में हैं।एक प्रचार आपके चित्त में बैठा है कि आत्मा है, ईश्वर है।प्रचार से एक विचार परिपक्व हो जाता है, अनुभव नहीं होता है। अगर आपको आत्म-सत्य का अनुभव करना है तो प्रचार के प्रभाव छोड़ देने होंगे। जो स्वयं में भीतर है उसका निष्प्रभाव स्थिति में जागरण होता है। प्रभाव  तो बाह्य है। प्रभाव के अभाव में ही स्वयं का बोध अनुभव होता है।
8-इंद्रियों का निर्माण ही इसलिए हुआ है कि हम जगत से परिचित हो सकें। दूसरे से, अन्य से परिचित होने की व्यवस्था है। लेकिन वह जो भीतर छुपा है, वह इस परिचय में अपरिचित हो जाता है।स्वयं को देखने के लिए इंद्रियों की कोई भी जरूरत नहीं है। स्वयं को तो बिना इंद्रियों के ही देखा जा सकता है। इसलिए इंद्रियां भीतर की तरफ नहीं जातीं, बाहर की तरफ जाती हैं।आंख बाहर ही देख सकती है ;भीतर देखने का कोई उपाय नहीं। लेकिन संतो ने , योगियों ने कहा है, ''लौटा लो आंख को, उलटी कर लो धारा''।लौटाने का मतलब इतना है कि बाहर की तरफ मत जाओ। जो ऊर्जा आंख से बाहर जाती है, उसे बाहर मत जाने दो। बाहर की तरफ जाने वाला द्वार बंद हो जाए, तो  देखने वाला बाहर न जाकर  अपनी तरफ लौट आएगा। स्वयं का देखना बिना आंख के हो जाता है। वह चक्षुरहित दर्शन है।
9-स्वयं को सुनने के लिए कोई कानों को भीतर लौटाने की जरूरत नहीं है। सिर्फ बाहर की ध्वनि ,तरंगों का जाल कान से छूट जाए। कान बाहर के प्रति उपेक्षा से भर जाएं  तो जो ऊर्जा कान से बाहर की तरफ जाती है ;वह ऊर्जा भीतर की ध्वनि को अपने आप सुन लेती है। उस ध्वनि को सुनने के लिए कान की कोई भी जरूरत नहीं है।तो जैसे कोई झरना बहता है और अवरुद्ध हो जाए और कहीं जाने का माग न मिले, तो झरना अपनी तरफ लौट आएगा, झरने का बहना बंद हो जाएगा और एक झील बन जाएगी। ऐसे ही चेतना बाहर जा रही है पांचों इंद्रियों से। वह बाहर न जाए तो चैतन्य की झील भीतर निर्मित हो जाती है। वह झील स्वयं बोध संपन्न है। वह झील स्वयं को देखने, स्वयं को सुनने, स्पर्श करने में संपन्न है। लेकिन वे सारे अनुभव अतींद्रिय हैं। उनका इंद्रियों से कोई भी लेना -देना नहीं है।कमरे में, कितना ही गहन अंधकार हो आपको कुछ भी न दिखाई पड़ता हो, लेकिन आप हैं, यह तो कोई भी अंधकार मिटा न सकेगा। कोई भी स्थिति हो आप तो रहेंगे ही और आपको पता चलता ही रहेगा कि मैं हूं। यह होना स्वयंसिद्ध है। यह किसी माध्यम से नहीं है। इसलिए आत्मज्ञानियों ने कहा है कि जगत के सारे अनुभव परोक्ष हैं, सिर्फ आत्म अनुभव प्रत्यक्ष है।
10-यह बड़ी उलटी बात है क्योंकि आमतौर से हम सोचते हैं कि सब चीजें प्रत्यक्ष हैं। वृक्ष दिखाई पड़ रहा है ,आप दिखाई पड़ रहे हैं। सब चीजें प्रत्यक्ष हैं, आंख के सामने हैं। लेकिन आत्मज्ञानी कहते हैं कि जगत के सभी अनुभव परोक्ष हैं क्योंकि बीच में आंख माध्यम का काम कर रही है। तुम पीछे छिपे हो ..ज्ञेय वस्तु बाहर है, बीच में माध्यम आंख है। आंख धोखा दे सकती है।चार्वाकों ने, नास्तिकों ने एक ही प्रत्यक्ष प्रमाण माना है कि जो आंख के सामने है, उसे ही मानेंगे।लेकिन आंख  रात में सपने भी देखती है । वे प्रत्यक्ष होते हैं, लेकिन सत्य नहीं होते। कभी राह पर पड़ी रस्सी सांप दिखाई पड़ जाती है और जब आंख रस्सी में, सांप देखती है  तो सांप बिलकुल दिखाई पड़ता है। लेकिन बाद में रोशनी आने पर पता चलता है, वहा कोई सांप नहीं। मरुस्थल में मृग -मरीचिका दिखाई पड़ जाती है। इसलिए इंद्रियों का इतना भरोसा नहीं है । सिर्फ आत्मज्ञान ही प्रत्यक्ष है, बाकी सब ज्ञान परोक्ष है क्योंकि बीच में कोई मध्यस्थ है। 
11-मध्यस्थ का कोई भरोसा नहीं हैं। लेकिन पदार्थ का ज्ञान तो परोक्ष ही होगा, सिर्फ आत्मा का ज्ञान प्रत्यक्ष हो सकता है। क्योंकि वहां बीच में कोई भी नहीं है ..अकेला मैं ही हूं। कोई धोखा देने वाला तत्व, कोई विकृत करने वाला तत्व बीच में नहीं है। इसलिए सामान्य अनुभव में जो प्रत्यक्ष है, आत्मज्ञानी के लिए परोक्ष है। और सामान्य अनुभव में जिसको हम बिलकुल नहीं देखते, वह आत्मज्ञानी के लिए प्रत्यक्ष है।आत्मा स्वयं प्रकाशित है। उसे देखने के लिए इंद्रियों के प्रकाश की कोई भी जरूरत नहीं है। अंधा भी उसे देखने में इतना ही समर्थ है, जितना आंख वाला। बहरा भी उसे देखने में इतना ही समर्थ है, जितना कान वाला। उससे शरीर की सामर्थ्य से कोई भेद नहीं पड़ता। सबल, स्वस्थ कि अस्वस्थ, सुंदर कि कुरूप, काला कि गोरा, कोई अंतर नहीं पड़ता। शरीर की कोई उपयोगिता आत्मज्ञान के लिए नहीं है। लेकिन दूसरे को जानना हो तो शरीर की उपयोगिता है। आंखे स्वस्थ होनी चाहिए कान स्वस्थ होने चाहिए। शरीर शक्तिशाली होना चाहिए तो ही दूसरे से संबंध जुड़ेगा। अपने से संबंध तो बना ही हुआ है, उसे जोड़ने का कोई प्रयोजन नहीं है।
12-इसलिए परमेश्वर को जानने के लिए तो इंद्रियों की जरूरत नहीं है, वह तो स्वयं ही प्रगट हो जाता है। लेकिन संसार स्वयं प्रगट नहीं होता, संसार को जानने के लिए इंद्रियों की जरूरत है। इसलिए जितनी ज्यादा इंद्रियां हों, उतना ज्यादा संसार प्रगट होता है।जगत में बहुत इंद्रियों वाले प्राणी हैं। मनुष्य के पास पांच इंद्रियां हैं।एक छोटा सा जीवकोष्ठ है ..'अमीबा'- उसके पास एक ही इंद्रिय है, केवल शरीर है।उसे  स्पर्श का अनुभव होता है, और कोई इंद्रिय नहीं है। तो जगत को जानने की दृष्टि से अमीबा सबसे कम विकसित प्राणी है लेकिन आत्मा की दृष्टि से नहीं ।जितनी ज्यादा इंद्रिया होती जाती हैं, जगत की जानकारी उतनी बढ़ती चली जाती है।कोई आश्चर्य न होगा कि किसी ग्रह पर पांच इंद्रियों से ज्यादा इंद्रियों वाले प्राणी हों,. तो मनुष्य का ज्ञान उनके सामने बिलकुल फीका हो जाए। हम कल्पना भी नहीं कर सकते कि छठवीं इंद्रिय क्या होगी क्योंकि हमारा ज्ञान पांच का है। जिन पशुओं के पास चार इंद्रिया हैं, वे कल्पना भी नहीं कर सकते कि  पांचवी इंद्रिय क्या होगी?
13-पशुओं को छोड़ दें, एक अंधा व्यक्ति सोच भी नहीं सकता कि प्रकाश क्या होगा। वास्तव में ,आपके ज्ञान का अस्सी प्रतिशत आंख से आता है, बाकी चार इंद्रियों से तो केवल बीस प्रतिशत आता है। इसलिए अंधे पर हमें बहुत दया आती है।दया का कारण है कि उसका अस्सी प्रतिशत जीवन अंधेरे में है। अस्सी प्रतिशत ज्ञान की उसे कोई संभावना नहीं है।स्वयं प्रगट होने वाले परमेश्वर ने समस्त इंद्रियों के द्वार बाहर की ओर बनाए हैं इसलिए अधिक मनुष्य प्राय: बाहर की वस्तुओं को देखने में ही जीवन व्यतीत कर देते हैं ..अंतरात्मा को नहीं ।किसी भाग्यशाली बुद्धिमान मनुष्य ने ही अमरत्व को पाने की आकांक्षा से चक्षु आदि इंद्रियों को बाह्य विषयों की ओर से हटाकर अंतरात्मा को देखा है। सारे ध्यान के प्रयोग, अलग—अलग विधियों वाले प्रयोग, एक चीज को मौलिक रूप से स्वीकार करते हैं कि आपकी सारी इंद्रियां शांत हो जाएं। किस ढंग से शांत हो, इसमें भेद है, लेकिन शांत हो जाएं, इसमें कोई विवाद नहीं है। सब इंद्रिया शांत हो जाएं और आप भीतर रह जाएं। जगत बाहर रह जाए आप भीतर रह जाएं और बीच में कोई सेतु न रहे, कोई जोड़ न रहे। उस क्षण में अंतरात्मा आविर्भूत होती है, प्रगट हो जाती है।इंद्रियों को थका डालें, इतना थका  डालें कि क्षणभर को भी अगर वे विश्राम में पहुंच जाएं, तो उतने क्षणभर को आपका प्रवेश भीतर हो जाए।
14-जो बाल बुद्धि वाले बाह्य भोगों का अनुसरण करते हैं वे सर्वत्र फैले हुए मृत्यु के बंधन में पड़ते हैं। किंतु बुद्धिमान मनुष्य नित्य अमरपद को विवेक द्वारा जानकर इस जगत में अनित्य भोगों में से किसी को भी नहीं चाहते।विवेक का अर्थ इतना ही है कि जो निरर्थक है, वह हमें निरर्थक दिखाई पड़ जाए; जो सार्थक है, वह सार्थक दिखाई पड़ जाए।जगत में हम कुछ भी चाहें, अगर न मिले तो दुख, और मिल जाए तो भी सुख नहीं।मनुष्य  जहां है, वहीं दुखी है। सुखी मनुष्य खोजना कठिन है।सुखी मनुष्य  वही हो सकता है, जो जहां है वहीं सुखी है। लेकिन  जो जहां है वहीं सुखी है, ऐसे मनुष्य का नाम ही संन्यासी है।और जो जहां  है वहीं दुखी है, ऐसे मनुष्य का नाम ही गृहस्थ है। वह हमेशा भविष्य में ही जी रहा है। कल उसका सुख है। स्वर्ग कल है, आज कुछ भी नहीं। आज को समर्पित करेगा, लगाएगा ..कल के लिए। आज को जलाएगा कल के लिए, ताकि कल का स्वर्ग मिल जाए। कल कभी आता नहीं। कल जब आएगा, वह आज ही होगा। वह उस आज को फिर कल के लिए लगाएगा। ऐसे वह लगाता जाता है। और एक दिन सिवाय मृत्यु के हाथ में कुछ भी नहीं आता।जो इस सत्य को जानकर कि बाहर कभी किसी को न कोई आनंद मिला है और न मिल सकता है, अपने ही अनुभव से, अपने ही जीवन के प्रयोगों से इस रहस्य को समझकर, जो बाहर के अनित्य भोगों की आकांक्षा छोड़ देता है, वही विवेकशील है।
15- बाहर की वस्तुओं की आकांक्षा  छोड़ना और  बाहर की वस्तुओं को छोड़ने में लग जाना बिलकुल और बात है।कुछ नासमझ बाहर की वस्तुओं को छोड़ने में लग जाते हैं।बाहर की वस्तु को तो वही छोड़ने में लगता है, जो पहले बाहर की वस्तु को पकड़ने में लगा था।अब वह छोड़ने में लगता है। लेकिन उसकी नजर बाहर की वस्तु पर ही लगी रहती है।बाहर की वस्तु न तो पकड़ने योग्य है और न छोड़ने योग्य। न तुम उसे पकड़ सकते हो, न तुम उसे छोड़ सकते हो। तुम हो कौन ..तुमने पकड़ा, वह तुम्हारी  भ्रांति  थी। तुम छोड़ रहे हो, यह तुम्हारी भ्रांति है। बाहर की वस्तु को न तुम्हारे पकड़ने से कुछ फर्क पड़ता है, न तुम्हारे छोड़ने से कुछ फर्क पड़ता है।तुम कल कहते थे, यह मकान मेरा है। मकान ने कभी नहीं कहा था कि तुम मेरे मालिक हो।क्योंकि तुमसे पहले कोई और यही कह रहा था। उससे पहले कोई और यही कह रहा था   और फिर एक दिन तुम कहते हो कि मैंने त्याग कर दिया है इस मकान का। न मकान तुम्हारा था, न तुम त्याग कर सकते हो। त्याग करना उतना ही पागलपन की बात है, जितना मालकियत की घोषणा थी। त्याग तो मालिक कर सकता है। ज्ञानी इस सत्य को जान लेता है कि मैं मालिक ही नहीं हूं तो  किसी चीज का छोडंगूा -पकडूगा कैसे?
16-इस बोध का भीतर गहरा हो जाना कि न इस जगत में कुछ पकड़ा जा सकता है और न छोड़ा जा सकता है..वासना का त्याग है । पकड़ना, छोड़ना, दोनों ही नासमझी हैं। इस जगत में न पकड़ने योग्य कुछ है और न छोड़ने योग्य कुछ है। ऐसी तटस्थता में जो  मनुष्य ठहर जाता है, वह विवेकशील है। उसकी वासना गिर जाती है। वह बाहर के जगत में दौड़ना बंद कर देता है। तुम्हारे भीतर छिपा हुआ जो चैतन्य है, वह जो कांशसनेस है, वह जो बोध की शक्ति है, वह जो तुम्हारे जीवन का मूल है, यही है वह परमात्मा ।यहां इस जगत में जो  रस, सौंदर्य, सुख, जिसके कारण भोग रहे हैं, जो इस सबके भीतर छिपा है, जिसके बिना यह कोई भी घटना न घट पाएगी,.। आप रस ले रहे हैं, क्योंकि भीतर आप मौजूद हैं। आप भीतर से तिरोहित हो जाएंगे, शरीर कोई रस न ले सकेगा। आपको सुगंध मालूम पड़ रही है, क्योंकि भीतर आप मौजूद हैं। आप मौजूद न होंगे, सुगंध मालूम न पड़ेगी। इस जगत के जो भी अनुभव हो रहे हैं, वे उस चैतन्य के आधार पर हो रहे हैं, जो भीतर छिपा है।तुम्हारे भीतर छिपा हुआ जो चैतन्य / कांशसनेस है, वही तुम्हारे जीवन का मूल है, यही है वह परमात्मा। जब फूल में सुगंध आती है, तो हमारा ध्यान फूल पर जाता है। हमारा ध्यान उस पर नहीं जाता, जिसको सुगंध आ रही है। फूल खिला, सुगंध फैली, आप पास में बैठे हैं या खड़े हैं ..सुगंध आई। यहां तीन हैं। एक तो फूल है, एक आप हैं, और दोनों के बीच में तैरती हुई सुगंध है।
17-एक ज्ञेय है, एक ज्ञाता है, और एक ज्ञान है..Knowledge, Knower & Known । हर जगह त्रिवेणी है। हर जगह ये तीन मौजूद हैं। लेकिन हमारा ध्यान हमेशा ज्ञेय पर जाता है, आब्जेक्ट पर, वह जो जाना गया। हम कहते हैं, कैसा सुंदर फूल है! हम यह नहीं कहते कि कैसी सुंदर आत्मा है कि फूल की गंध ले सकी! ,वह भीतर जो छिपा है, कैसा सुंदर चैतन्य हैं,उसका हमें स्मरण ही नहीं आता। न तो सुगंध उतनी कीमती है,न फूल उतना कीमती है, जितना वह कीमती है जिसके आधार पर ये सब घट रहा है। इस जीवन में जो भी हो रहा है,उस सबके पीछे छिपी हुई चेतना है।सभी स्वप्न स्वप्न के भीतर सत्य होते हैं। स्वप्न के बाहर जब आप जागते हैं, तब असत्य हो जाते हैं। जैसे ही आप जागते हैं और पाते हैं कि अपने कमरे में सोया हुआ ..आप कहते हैं, सब झूठा था।स्वप्न जागृति से भी ज्यादा गहरा अनुभव है। क्योंकि जागृति स्वप्न को पूरी तरह नहीं पोंछ पाती, सुबह कुछ न कुछ याद रह जाता है। लेकिन स्वप्न पूरी तरह आपकी जागृति को पोंछ डालता है..कुछ भी याद नहीं रहता। स्वप्न में जागरण असत्य हो जाता है। जागरण में स्वप्न असत्य हो जाता है। फिर सत्य क्या है?
18-वास्तव में , सत्य दोनों में से कोई भी नहीं है। सत्य तो सिर्फ देखने वाला है, जिसको दोनों ही असत्य नहीं कर पाते। रात भी एक चीज मौजूद रहती है, देखने वाला; सपने देखता है। और दिन भी वह चीज मौजूद रहती है, देखने वाला; जागृति के अनुभव देखता है। सपने बदल जाते हैं, जागरण बदल जाता है, लेकिन देखने वाला अपरिवर्तित रूप से सतत मौजूद रहता है।
वह द्रष्टा ही केवल सत्य है। जो देखा जाता है, वह तो सब असत्य हो जाता है। जो देखने वाला है, वही केवल सत्य रह जाता है। स्मरण रखें, असत्य देखने के लिए भी सत्य देखने वाला चाहिए। झूठ स्वप्न को भी देखने के लिए एक सच्चा देखने वाला चाहिए। अगर देखने वाला भीतर न हो, तो असत्य भी नहीं देखा जा सकता।जो उसको पकड़ लेता है जो देखने वाला है, फिर वह शोक नहीं करता।अगर आपको द्रष्टा का अनुभव होने लगे—दर्शन से आंख हटे, दृश्य से आंख हटे और पीछे छिपे द्रष्टा से थोड़ा सा भी तालमेल बैठने लगे—तो आप  पाएंगे कि परमात्मा से ज्यादा समीप और कोई भी नहीं। अभी उससे ज्यादा दूर और कोई भी नहीं है। अभी परमात्मा सिर्फ कोरा शब्द है। और जब भी हम सोचते हैं, तो ऐसा लगता है कि आकाश में कहीं बहुत दूर परमात्मा बैठा होगा ..किसी सिंहासन पर। यात्रा लंबी मालूम पड़ती है। और परमात्मा यहां बैठा. है, ठीक सासों के पीछे!तो  परमात्मा  पास से भी पास है, क्योंकि तुम स्वयं वही हो। लेकिन यह खयाल तभी आएगा जब द्रष्टा पर ध्यान जाने लगे। तो परमात्मा एकदम निकट है। 
19-और जिसको परमात्मा इतना निकट मालूम होगा अपने भीतर, ध्यान रहे, उसे सबके भीतर भी मालूम होने लगेगा।
यह एक जीवन का अनिवार्य नियम है  कि जो आपको अपने भीतर दिखाई पड़ता है, वही आपको दूसरों के भीतर दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है। अगर आप चोर हैं, तो आपको चारों तरफ चोर दिखाई पड़ते हैं, और लगता है, सब साजिश कर रहे हैं। अगर आप बेईमान हैं, तो आपको कोई ईमानदार नहीं दिखाई पड़ता। लगता है कि सब बेईमान हैं ..जल्दी धोखा देंगे।दूसरे के संबंध में,  हमारी जो भी धारणा होती है, वह बहुत गहरे में अपनी ही धारणा होती है। इसलिए बुरा व्यक्ति कभी नहीं मान पाता कि कोई अच्छा व्यक्ति हो सकता है। अगर आप उससे कहें कि फलां व्यक्ति अच्छा है, तो अविश्वास से सिर हिलाएगा। वह कहेगा कि ठहरो, थोड़े दिन में समझोगे। ज्यादा देर तक चीजें छिपी नहीं रहतीं ..पता चल ही जाएगा। वह पता लगाने की पूरी कोशिश करेगा  कि बुरा होना तो पक्का भरोसा है..अच्छा होना तो आवरण ही हो सकता है।

20-सिर्फ अच्छा  व्यक्ति ही भरोसा करता है कि दूसरा अच्छा हो सकता है। अच्छा  व्यक्ति मुश्किल पाता है कि कोई बुरा कैसे हो सकता है? और ध्यान रहे, अगर आपको दूसरे के बुरे होने पर तत्काल भरोसा आ जाता हो, तो भूलकर मत समझना कि आप अच्छे  व्यक्ति हैं। वह कसौटी है। अच्छे  व्यक्ति  को तो बड़ा मुश्किल है यह भरोसा लाना कि दूसरा बुरा है ..बुरा हो तो भी। ठीक वैसे ही जैसे बुरे  व्यक्ति  को भरोसा लाना मुश्किल है कि दूसरा अच्छा है ..अच्छा हो तो भी।हम अपने से बाहर सोच ही नहीं सकते । इसलिए जिस व्यक्ति को द्रष्टा का अनुभव होने लगता है, उसे सबके भीतर भी द्रष्टा का अनुभव होने लगता है। वह आपके शरीर को नहीं देखता, आपके भीतर की झलक उसे मिलने लगती है। उसे सब तरफ परमात्मा मौजूद मालूम होता है, इसलिए निंदा असंभव हो जाती है। निंदा असंभव तभी हो सकती है,जब दूसरे में हमें परमात्मा दिखाई पड़ने लगे। तब तो स्तुति हो सकती है, निंदा होने का कोई कारण नहीं रह जाता।
21-हमें सब तरफ शैतान दिखाई पड़ता है, इसलिए निंदा चलती है। शैतान को शैतान दिखाई पड़ता है, परमात्मा को परमात्मा दिखाई पड़ता है। आप जो हैं, वही आपके जगत का अनुभव है..उसी का फैलाव है। उसी दिन समझना कि आपके भीतर संतत्व का उदय हुआ, जिस दिन आपको शैतान दिखाई पड़ना मुश्किल हो जाए।जैसे ही किसी व्यक्ति को अनुभव होता है कि वह  समीपतम है, उसके बाद वह किसी की निंदा नहीं करता .. स्तुति सहज हो जाती है। उसे सबके भीतर उसकी झलक दिखाई पड़ने लगती है ...सब दीयों में उसी की रोशनी।इस शरीर की गुफा में छिपा हुआ कोई अजन्मा  है, जिसका कोई जन्म नहीं हुआ है और जो कभी मिटेगा नहीं,उसे जो देखता है, वही देखता है। बस उसके पास ही आंख है, भीतर की दृष्टि से ..बाकी सब अंधे हैं। बाहर कितना ही दिखाई पड़ता हो, जो स्वयं को ही नहीं देख पाते, उनका आंखों का होना- न होना बराबर है।केवल
वही ठीक देखता है जो अजन्मा को हृदय की गुफा में पहचान लेता है।जो देवी अदिति प्राणों के सहित उत्पन्न होती है; जो   हृदयरूपी गुहा में प्रवेश करके वहीं रहने वाली है उसे जो पुरुष देखता है वही यथार्थ देखता है।प्राण की ऊर्जा / जीवन ऊर्जा का नाम अदिति है। यह जो भीतर जीवन की धारा बह रही है,जो इस धारा को पहचान लेता है ..यही है वह परमात्मा।  
22-अग्नि की पूजा बड़ी प्राचीन है।अग्नि की एक खूबी है कि वह सदा ऊपर की तरफ जाती है,उसकी गति सदा ऊपर की तरफ है। अगर आप दीए को उलटा भी कर दें, तो भी ली ऊपर की तरफ जाएगी। और अग्नि की पूजा का मौलिक कारण यही था, कि जैसे अग्नि छिपी होती है पदार्थों में और प्रगट करनी पड़ती है, वैसे ही परमात्मा भी छिपा है और प्रगट करना पड़ता है।
पानी नीचे की तरफ बहता है, आग ऊपर की तरफ बहती है। आग का सहारा अगर पानी भी ले ले तो पानी तक ऊपर की तरफ बहने लगता है। गरम हो जाए, उबल जाए, भाप बन जाए यात्रा बदल जाती है। पानी का गुणधर्म बदल जाता है। वह जो नीचे की तरफ बहता था, वह भी आकाश की तरफ उठने लगता है। पुराने दिनों में  मनुष्य को अनुभव हुआ कि आग के अतिरिक्त किसी चीज में ऊपर की तरफ जाने की क्षमता नहीं है। आग ग्रेविटेशन के विपरीत है। जमीन खींचती है, आग को नहीं खींच पाती। आग ऊपर की तरफ जाती है, जमीन उस पर कुछ भी नहीं कर पाती।
23-जो चेतना ऊपर की तरफ जाने लगती है, वह आग उसका प्रतीक बन गई। और परमात्मा निरंतर ऊपर की तरफ जाती हुई चेतना का नाम है। यह आग सबके भीतर छिपी है। थोड़ी सी रगड़ की जरूरत है। उस रगड़ का नाम साधना है।थोड़ा भीतर छिपी हुई अरणियों को टकराना पड़ेगा।पुराने जमाने में जब आग को पैदा करने के और कोई उपाय न थे, तो दो लकड़ियों को रगड़कर आग पैदा की जाती थी। वह जिस लकड़ी को रगड़कर आग पैदा करते थे, उसका नाम अरणि था। रगड़ने से जो छिपी आग थी, वह प्रगट हो जाती। रगड़ से कोई चीज पैदा नहीं होती, केवल प्रगट हो सकती है। जो छिपी हो, वह प्रगट हो सकती है।  ध्यान के प्रयोग वस्तुत: अरणियों का टकराना हैं।आपके भीतर की ऊर्जा को थोड़ा संघर्षण से गुजरना पड़ेगा।उस आग को जगाने के लिए थोड़ा सा श्रम जरूरी है।परमेश्वर सबका मूल उदगम और सबका अंतिम अंत है। उसके पार जाने का कोई उपाय नहीं। परमात्मा का कोई अतिक्रमण नहीं हो सकता, क्योंकि सभी चीजों का अतिक्रमण करके जो उपलब्ध होता है, वह परमात्मा है।वह अस्तित्व की आखिरी सीमा है । 
24-अगर कोई कहता हो कि परमात्मा यहां नहीं वहां है, तो वह भ्रांति में है। क्योंकि वह सब जगह है। परलोक में परमात्मा है, ऐसा नहीं है, इस लोक में भी वही है। देखने वाली आंख चाहिए। और जिसके पास देखने वाली आंख है, उसे यहां ही दिखाई पड़ जाएगा। और ध्यान रहे, जिसे यहां दिखाई नहीं पड़ता, उसे वहां भी दिखाई नहीं पड़ेगा। वह आंख पैदा हो जाए, तो सब जगह वह प्रगट हो जाता है। वह आंख पास में न हो, तो वह कहीं भी प्रगट नहीं होता।लेकिन लोग अपने को धोखा देते रहते हैं। वे कहते हैं, वह यहां प्रगट नहीं हो रहा है क्योंकि यहां नहीं है, वहां  परलोक में है। इस तरह अंधे अपना बचाव कर लेते हैं। उनको फिर यह खयाल नहीं होता कि हम अंधे हैं इसलिए दिखाई नहीं पड़ रहा।अंधों ने बैकुंठ, स्वर्ग, परलोक, न मालूम क्या -क्या निर्माण किए हैं। वह उनकी इस बात की कोशिश है कि हममें कोई गलती नहीं है कि वह हमें दिखाई नहीं पड़ रहा है; वह यहां है ही नहीं, वह परलोक में है। जब हम परलोक पहुंचेंगे, तब वह दिखाई पड़ेगा। इससे अंधों को बड़ी सुविधा हो जाती है, सांत्वना मिलती है।
25-इसीलिए जैसे- जैसे  मनुष्य बूढ़ा होने लगता है और परलोक करीब आने लगता है, वैसे -वैसे धार्मिक होने लगता है। मंदिरों में, मस्जिदों में, गुरुद्वारों में बूढ़े इकट्ठे हैं, जवान वहां दिखाई नहीं पड़ते। और कभी कोई जवान भी दिख जाए, तो समझना कि   कोई न कोई गड़बड़ हो गई है।बूढ़े  भी अपने बेटों को समझाते हैं कि धर्म अभी तुम्हारे काम का नहीं। इसकी एक उम्र होती है। जब बूढ़े हो जाओ, तब।असल में मरने की घटना जब बिलकुल करीब आने लगे, जब ऐसा शक होने लगे कि अब परलोक जाना ही पड़ेगा, तो  मनुष्य धार्मिक होना शुरू होता है।क्योंकि इस लोक में तो परमात्मा है नहीं।लेकिन यह व्यवस्था धोखे की है। जो यहां धार्मिक नहीं है, वह  सिर्फ मौत के कारण धार्मिक नहीं हो जाएगा।लेकिन मुक्तपुरुष को यहां इस संसार में भी मोक्ष ही दिखाई पड़ता है। कुछ और दिखाई पड़ने का उपाय नहीं है क्योंकि जो परब्रह्म यहां है. वही वहां परलोक में भी है। जो वहां है वही यहां इस लोक में भी है।इस जगत में जितना भी अस्तित्व है, जितने रूप हैं, वे एक के ही प्रतिबिंब हैं। आपके भीतर, एक सरोवर की भांति आपकी चेतना में, उस एक की ही छाया बनी है।हम इस जगत को अनेक की भांति देखते हैं। वृक्ष, पत्थर अलग, आप अलग,मैं अलग, पड़ोसी अलग; सब अलग .. सब टूटे हुए, खंड -खंड ।आकाश में, एक ही चांद होता है लेकिन सब पानी में ,झीलें  सरोवरआदि में हजारों -लाखों प्रतिबिंब बनते हैं ।जो इस जगत में उस परमात्मा को अनेक की भांति देखता है;वह भटकता है जन्म-मरण में।वह मनुष्य बारंबार जन्म-मरण को प्राप्त होता है । जो यहां भी उसे एक की भांति देख लेता है , वह तत्‍क्षण मुक्त हो जाता है। 
 
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आत्म जागरण योग की पहली  साधना;-
04 STEPS;- 
1-किसी शान्त या एकान्त स्थान में जाइए। निर्जन, कोलाहल रहित स्थान इस साधना के लिए चुनना चा हिए। इस प्रकार के स्थान पर घर का स्वच्छ, हवादार कमरा भी हो सकता है और नदी तट अथवा उपवन भी। हाथ मुँह धोकर साधना के लिए बैठना चाहिए। आराम कुर्सी पर अथवा दीवार वृक्ष या मसनद के सहारे बैठ कर यह साधना भली प्रकार होती है। सुविधापूर्वक बैठ जाइए। 
2-तीन लम्बे-लम्बे साँस लीजिए पेट में भरी हुई वायु को पूर्ण रूप से बाहर निकालना और फिर फेफड़ों में पूरी हवा भरना एक पूरा साँस कहलाता है। तीन पूरे साँस लेने से हृदय  की भी उसी प्रकार एक धार्मिक शुद्धि होती है जैसे स्नान करने, हाथ पाँव धोकर बैठने से शरीर की शुद्धि होती है। तीन पूरे साँस लेने के बाद शरीर को शिथिल कीजिए शरीर के हर अंग में से खिंच कर प्राण शक्ति हृदय में एकत्रित हो रही है ऐसा ध्यान कीजिए। 
3-हाथ पाँव आदि सभी अंग प्रत्यंग शिथिल ढीले निर्जीव, निष्प्राण हो गये हैं ऐसी भावना करनी चाहिए। मस्तिष्क से सब विचारधाराएं और कल्पनाएं शान्त हो गई हैं, और समस्त शरीर के अन्दर एक शान्त नील आकाश व्याप्त हो रहा है। इस शान्त शिथिल व्यवस्था को प्राप्त करने के लिए कुछ दिन लगातार प्रयत्न करना पड़ता है। अभ्यास से दिन-दिन अधिक शिथिलता एवं शान्ति अनुभव होती जाती है। 
4-शरीर के भली प्रकार शिथिल हो जाने पर हृदय स्थान में एकत्रित अंगूठे के बराबर शुभ श्वेत ज्योति स्वरूप प्राण शक्ति का ध्यान करना चाहिए। ''अजर, अमर, शुद्ध, बुद्धि चेतन, पवित्र ईश्वरीय अंश आत्मा मैं हूँ। मेरा वास्तविक स्वरूप वही है। मैं सत् चित आनन्द स्वरूप आत्मा हूँ''। उस ज्योति के कल्पना नेत्रों से दर्शन करते हुए उपरोक्त भावनाएं मन में रखनी चाहिए।उपरोक्त शिथिलासन के साथ आत्म दर्शन करने की साधना इस योग में प्रथम साधना है।  
आत्म जागरण योग की दूसरी साधना; - 
जब पहली साधना भली प्रकार अभ्यास में आ जाय तो आगे सीढ़ी पर पैर रखना चाहिए। ऊपर लिखी हुई शिथिलावस्था में अखिल आकाश में नील वर्ण आकाश का ध्यान कीजिए। उस आकाश में बहुत ऊपर सूर्य के समान ज्योति स्वरूप आत्मा को अवस्थित देखिए। “मैं ही यह प्रकाशवान आत्मा हूँ,” ऐसा निश्चित संकल्प कीजिए। अपने शरीर को नीचे भूतल पर निस्पंद अवस्था में पड़ा हुआ देखिए उसके अंग प्रत्यंगों का निरीक्षण एवं परीक्षण कीजिए। ''वह हर एक कल पुर्जा मेरा औजार है। मेरा वस्त्र है ,यह यंत्र मेरी इच्छानुसार क्रिया करने के लिए प्राप्त हुआ है''- इस बात को बार-बार मन में दुहराइए। इस निस्पंद में मन और बुद्धि को दो सेवक शक्तियों के रूप में देखिए। वे दोनों हाथ बाँधे आपकी इच्छानुसार कार्य करने के लिए नतमस्तक खड़े हैं।मैं इस शरीर और मन बुद्धि का उपयोग सच्चे आत्मस्वार्थ के लिए ही करूंगा- यह भावनाएं बराबर उस ध्यानावस्था में आपके मन में गूँजती रहनी चाहिए। 
आत्म जागरण योग की तीसरी साधना;- 
जब दूसरी भूमिका का ध्यान भली प्रकार होने लगे तो तीसरी भूमिका का ध्यान कीजिए। अपने को सूर्य की स्थिति में ऊपर आकाश में अवस्थित देखिए। ''मैं समस्त भूमंडल पर अपनी प्रकाश किरणें फेंक रहा हूँ। संसार मेरा कर्म क्षेत्र और लीला भूमि है, भूतल की वस्तुओं और शक्तियों को इच्छित प्रयोजन के लिए काम में लाता हूँ पर ये मेरे ऊपर प्रभाव नहीं डाल सकतीं।पंच भूतों की गतिविधि के कारण जो हलचलें संसार में हर घड़ी होती हैं वे मेरे लिए एक विनोद और मनोरंजक आत्म जागरण योग  दृश्य मात्र हैं। मैं किसी की साँसारिक हानि लाभ से प्रभावित नहीं होता। मैं शुद्ध चैतन्य सत्यस्वरूप पवित्र निर्लिप्त अविनाशी आत्मा हूँ। मैं आत्मा हूँ, महान आत्मा हूँ। महान परमात्मा का विशुद्ध स्फुल्लिंग हूँ। ''तीसरी भूमिका का ध्यान जब अभ्यास में कारण पूर्ण रूप से पुष्ट हो जाय और हर घड़ी वही भावना रोम रोम में प्रतिभाषित होने लगे तो समझना चाहिए कि इस साधना की सिद्धावस्था प्राप्त हो गई यही जागृत समाधि या जीवन मुक्त अवस्था है।
 MEDITATION based ON IDEA-;-  
This is meditation based on Nirguna Brahman ,on OM / AN ABSTRACT IDEA   1-Sit in Padmasana. Repeat OM mentally. Keep the meaning of OM always in the mind. Feel that you are the All-pervading, Infinite Light. Feel that you are the "Suddha-Sat-Chit-Ananda, Vyapaka Atman, Nitya Suddha Buddha Mukta, eternally free Brahman."   
2-Feel you are Chaitanya. Feel that you are the "Akhanda Paripurna, Ekarasa, Santa, Infinite, Eternal, Unchanging Existence."---- Every atom, every molecule, every nerve, vein, artery should powerfully vibrate with these ideas.  
3- Lip repetition of OM will not produce much benefit. It should be through heart, head and soul. Your whole soul should feel that you are the subtle, all-pervading Intelligence. Negate the body-idea when you repeat OM mentally.This feeling should be kept up continuously.  
4-Meditate on the above ideas constantly. Constant effort with zeal and enthusiasm is indispensable. Repeat mentally the above ideas incessantly. You will realise. You will have Atma-Darshan within two or three years.  
5-Will and Manana(to ponder) are two important factors which play a conspicuous part in Nirguna meditation or Vedantic Sadhana. Manana is preceded by Sravana or hearing of Srutis and followed by Nididhyasana of a constant nature with zeal and enthusiasm. Nididhyasana is profound meditation. Sakshatkara or Aparoksha realisation follows Nididhyasana.   
6-Just as the drop of water when dropped on a hot iron is absorbed by the hot iron, so also the mind and the Abhasa Chaitanya (reflected consciousness) become absorbed in Brahman. The balance left is Chinmatra or Chaitanya Matra (Consiciousness-Absolute). Sravana, Manana and Nididhyasana of the Vedantic Sadhana correspond to Dharana, Dhyana and Samadhi of Raja Yoga of Patanjali Maharshi.  
7-By worship and meditation or Japa of Mantras, the mind is actually shaped into the form of the object of worship and is made pure for the time being through the purity of the object (namely, Ishta Devata). By continual practice (Abhyasa), the mind becomes full of the object to the exclusion( the act of not allowing someone)of all else, steady in its purity and does not wander into impurity. So long as the mind exists it must have an object and the object of Sadhana is to present it with a pure one.  8-The sound repeatedly and harmoniously uttered in Japa of Mantra must create or project into perception the corresponding thing, Devata. The Mantras gather creative momentum by repetition through the force of Samskaras.  
9-In Samadhi, the mind loses its own consciousness and becomes identified with the object of meditation . The meditator and meditated, the worshipper and worshipped, the thinker and the thought become one. The subject and the object, Aham and Idam (I and this), Drik and Drisya (seer and seen), the experiencer and the experienced become one. Prakasa and Vimarsa get blended into one. Unity, identity, homogeneity (all of the same kind), oneness, sameness refer to Nirvikalpa Samadhi.  
10-There is a living universal Power or Intelligence that underlies at the back of all these names and forms. Meditate on this Power or Intelligence which is formless. This will form an elementary Nirguna meditation without any form. This will lead to the realisation of the Absolute, Nirguna, Nirakara consciousness eventually. 
 IN NIRGUN MEDITATION ;-  
1- The aspirant takes himself as Brahman. He denies and sublates the false adjuncts or fictitious environments as egoism, mind and body. He depends upon himself and upon himself alone.   
2-The aspirant asserts boldly. He reflects, reasons out, investigates, discriminates and meditates on the Self. He does not want to taste sugar but wants to become a solid mass of sugar itself. He wants merging. He likes to be identical with Brahman. This method is one of expansion of lower self.  
 3-Suppose there is a circle. You have a position in the centre. You so expand by Sadhana to a very great extent that you occupy the whole circle, and envelop the circumference.   
4-This method of meditation is suitable for persons of fine intellect, bold understanding, strong and accurate reasoning and powerful will. Only a microscopic minority of persons is fit for this line of meditation.  
THE KEY POINT;---  
1-It is comparatively easy to meditate on 'Aham Brahma Asmi' when you are seated in a steady posture in a solitary closed room. But it is very, very difficult to keep up this idea amidst crowded surroundings, while the body moves. 
 2- If you meditate for one hour and feel that you are Brahman, and if you feel for the remaining twenty-three hours that you are the body, the Sadhana cannot produce the desired result; Until at all times, you try to keep up the idea that you are Brahman. This is very difficult but very important.  3-A worldly mind needs thorough overhauling and a complete psychological transformation. Concentration and meditation bring about the construction of a new mind, with a new mode of thinking. Contemplative life is diametrically opposite to worldly life. It is an entire change altogether.   4-Old negative deeds ( Vishaya- Samskaras )have to be thoroughly annihilated through constant and intense practices carried on with zeal for a long time and thereby new spiritual Samskaras have to be created..  
TYPES OF NIRGUN MEDITATION :----  
1-AIR;-  Sit in Padmasana. Concentrate on the air. This will lead to the realisation of the nameless and formless Brahman, the one living Truth.  
2-AKHANDA JYOTI;--  Imagine that there is a Parama, Ananta, Akhanda Jyotis (Supreme, Infinite effulgence) hidden behind all the phenomena with an effulgence that is tantamount to the blaze of crores of suns. Meditate on that. This is also another form of Nirguna meditation.  
3-SKY;-  Concentrate and meditate on the expansive sky. This is also another kind of Nirguna, Nirakara meditation. By the previous methods in concentration the mind will stop thinking of finite forms. It will slowly begin to melt in the ocean of Peace, as it is deprived of its contents, viz., forms of various sorts. It will become subtler and subtler also.
4-AUM TECHNIQUE  
1-The sacred Aum vibration can be heard in meditation through the supersensory medium of intuition. First, the devotee realizes Aum as the manifested cosmic energy in all matter. The earthly sounds of all atomic motion, including the sounds of the body—the heart, lungs, circulation, cellular activity—come from the cosmic sound of the creative vibratory activity of Aum.   
2-The sounds of the nine octaves (A series of eight note) perceptible to the human ear, as well as all cosmic low or high vibrations that cannot be registered by the human ear, have their origin in Aum. So also, all forms of light—fire, sunlight, electricity, astral light—are expressions of the primal cosmic energy of Aum.  
3-This Holy Vibration working in the subtle spinal centers of the astral body, sending forth life force and consciousness into the physical body, manifests as wonderful astral sounds—each one characteristic of its particular center of activity.  
4-Chakras sounds;--These astral sounds are likened to melodic strains of the humming of a bee, the tone of a flute, a stringed instrument such as a harp, a bell-like or gong sound, the soothing roar of a distant sea, and a cosmic symphony of all vibratory sound.Their effects will be automatically realized by the advanced devotee .  
5-The Self-Realization technique of meditation on Aum teaches one to hear and locate these astral sounds. This aids the awakening of the divine consciousness locked in the spinal centers, opening them to "make straight" the way of ascension to God-realization.  
6-As the devotee concentrates on Aum, first by mentally chanting Aum, and then by actually hearing that sound, his mind is diverted from the physical sounds of matter outside his body to the circulatory and other sounds of the vibrating flesh. Then his consciousness is diverted from the vibrations of the physical body to the musical vibrations of the spinal centers of the astral body. His consciousness then expands from the vibrations of the astral body to the vibrations of consciousness in the causal body and in the omnipresence of the supersoul.  
7-When the devotee's consciousness is able not only to hear the cosmic sound of Aum, but also to feel its actual presence in every unit of space, in all finite vibrating matter, then the soul of the devotee becomes one with BRAHMAN.His consciousness vibrates simultaneously in his body, in the sphere of the earth, the planets, the universes, and in every particle of matter, space, and astral manifestation.   
8-In these highest states of meditation, the body itself becomes spiritualised, loosening its atomic tenacity to reveal its underlying astral structure as life force. The aura often depicted around saints is not imaginative, but the inner divine light suffusing the whole being.   
9-Nirguna meditation is abstract meditation on Nirguna Brahman. Repeat OM mentally with Bhava (feeling). Associate the ideas of Sat-Chit-Ananda-Purity, Perfection, "All Joy I am: All Bliss I am: I am Svarupa: Asangoham-I am unattached: Kevaloham-I am alone: Akhanda-Eka-Rasa- Chinmatroham. 

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