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मंगलवार, 12 अक्तूबर 2021

आत्मबोध, आत्म अनुभव एवं आत्मज्ञान कैसे हो?

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क्या आपने कभी सोचा है, आप जो भी कल्पना कर सकते हैं आप जो भी सोच सकते हैं वह आपकी इंद्रियों के द्वारा दिया गया अनुभव है। आंख देती है, कान देता है, हाथ देता है, नाक देती है, जबान देती है। आपकी पांच इंद्रियां हैं, क्या आपका मन ऐसी कोई चीज कभी सोच सकता है जो इन पांच इंद्रियों से ज्ञात न हो? एक भी बात नहीं सोच सकता। इसे थोड़ा हम और तरह से समझें तो शायद आसानी पड़े। न आंख उसे देखती है, न कान उसे सुनते हैं, न हाथ उसे छूते है, वह इंद्रियों के पार रह जाता है। वह जो इंद्रियों के पार है, वह मन से सोचा नहीं जा सकता। चिंतन उसका असंभव है। मनन उसका असंभव है। आपको अपना पता चलता है। इतना तो तय है कि आपको अपने होने का पता चलता है। लेकिन क्या कभी आपने सोचा कि जब दूसरी चीजों का आपको पता चलता है तो इंद्रियों के द्वारा चलता है, आपको स्वयं के होने का पता किस इंद्रिय के द्वारा चलता है? प्रकाश का पता चलता है तो आंख से चलता है। ध्वनि का पता चलता है तो कान से चलता है, लेकिन आपको अपना पता किस इंद्रिय से चलता है? आप हैं, ऐसा आपको अनुभव किस इंद्रिय से होता है? इसलिए कोई इंद्रिय उसकी गवाही नहीं दे सकती। इसीलिए दूसरी बात भी आप खयाल में ले लें, अगर मेरी सारी इंद्रियां भी मुझसे अलग कर दी जाएं तो भी मेरे होने का बोध नहीं खोता। अगर मेरा हाथ काट दिया जाए तो भी मेरे होने के बोध में कमी नहीं पड़ती। मेरी आंखें निकाल ली जाएं तो मेरे होने के बोध में कोई कमी नहीं पड़ती। मेरी जबान काट दी जाए तो मेरे होने के बोध में कमी नहीं पड़ती। मेरा जगत छोटा हो जाएगा, मैं छोटा नहीं होऊंगा। मनुष्य के भीतर जो आत्मा है, उसके लिए हम तर्क से निर्णय करने चलते हैं। वह भी अनुभव है। और जब तक ध्यान की आंख उपलब्ध न हो तब तक वह अनुभव नहीं होता। इसलिए ध्यान को तीसरी आंख कहा है। वह आंख उपलब्ध हो, तो जो दिखायी पड़ता है, वह आत्मा है। और तब जो दिखायी पड़ता है, उसके हाथ—पैर नहीं हैं, उसका शरीर नहीं है, वह अरूप है। वह मात्र चैतन्य है। और तब जो दिखायी पड़ता है, अगर वह अपनी परिपूर्ण शुद्धता से अनुभव में आए, तब यह सूत्र खयाल में आएगा। जिस दिन आप अपने आपको जान लेंगे उस दिन से ईश्वर को जानने की यात्रा प्रारंभ होती है। उसके पहले नहीं जान सकते। पहले उसकी पात्रता चाहिए। जो आत्मा को जान लेता है केवल वही पात्र है परमात्मा को जानने का। लेकिन हम ईश्वर को भी इन्द्रियों से जानना चाहते हैं। हम कितने मूर्ख हैं। जिन लोगों ने भी ईश्वर को जाना है तो इन्द्रियों से नहीं जाना। जिस प्रकार आप अपने आपको अनुभव करते हैं ठीक उसी हम ईश्वर को अनुभव कर पाते हैं। ~कैवल्‍य-उपनिषद (भाग-५)

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