प्रेम के साथ घृणा चल सकती है, कुछ अड़चन नहीं है। लेकिन प्रेम के साथ भय कभी नहीं चलता; इसलिए असली विरोध तो प्रेम और भय में है। जहां प्रेम आया, भय गया। जहां भय आया वहां प्रेम गया।
मैंने सुना है, एक जापानी कथा है: एक युवक विवाह करके…एक योद्धा विवाह करके अपने घर लौट रहा है–अपनी नववधू को लेकर। नाव पर दोनों सवार हैं। तूफान आ गया है। नाव डांवाडोल हो रही है–अब गई, तब गई! लेकिन वह युवक निश्चिंत बैठा है। वह पत्नी उसकी घबड़ाने लगी। वह कंपने लगी। उसने उससे कहा, तुम इस तरह निश्चिंत बैठे हो जैसे कुछ भी नहीं हो रहा है! देखते नहीं कि नाव डूबी, अब बचना मुश्किल है। अभी हम विवाहित ही हुए थे, अभी विवाह का सुख भी न जाना था–और ये कैसे दुर्दिन आ गए! यह कैसी दुर्घटना हुई जा रही है। तुम बैठे क्यों हो? तुम ऐसे निश्चिंत बैठे हो जैसे घर में बैठे हो, जैसे कुछ भी नहीं हो रहा!
उस युवक ने अपने म्यान से तलवार निकाल ली–और तलवार उस युवती के, अपनी पत्नी के गले के पास ले गया। ठीक बिलकुल पास ले गया। ठीक बिलकुल पास ले गया कि जरा बाल भर का फासला रह गया। जरा-सी चोट की कि गरदन अलग हो जाए। वह युवती हंसने लगी। उस युवक ने कहा, तू हंसती है? घबराती नहीं? तलवार तेरी गरदन पर है–नंगी तलवार; जरा-सा इशारा और तू गई। घबराती नहीं?
उसने कहा, क्या घबड़ाना? तलवार जब तुम्हारे हाथ में है…।
उस युवक ने कहा, यही मेरा उत्तर है। जब तूफान परमात्मा के हाथ में है तो क्या घबड़ाना?
तलवार उसने वापिस म्यान में रख ली। इधर वह तलवार म्यान में वापिस रख रहा था कि उधर तूफान भी म्यान में वापिस रख लिया गया।
प्रेम जहां है वहां भय नहीं। इसलिए भक्त से ज्यादा निर्भय कोई भी नहीं होता जिसको तुम ध्यानी कहते हो, वह भी डरा रहता है–बहुत बार डरा रहता है कि कहीं यह न चूक जाए, कहीं यह भूल न हो जाए, कहीं यह पाप न हो जाए,कहीं यह नियम उल्लंघन न हो जाए!
बुद्ध के भिक्षु के लिए तैंतीस हजार नियम! सोचो, चिंता तो रहती होगी–तैंतीस हजार नियम! याद ही रखना मुश्किल है; कुछ न कुछ तो भूल होने ही वाली है। नरक निश्चित ही है। तैंतीस हजार नियम हों तो नरक से बचोगे कैसे?
लेकिन प्रेमी को कोई भय नहीं। वह कहता है, तुम जानो। अगर भूल करवानी हो भूल करवा लेना; अगर न करवानी हो मत करवाना।
भक्त का अभय पूरा है; समग्र है।
ओशो
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