परम श्रद्धेय ब्रह्मलीन पण्डित अरुण कुमार शर्मा काशी की अद्भुत अध्यात्म-ज्ञानगंगा में पावन अवगाहन
योगमार्ग का परम लक्ष्य है--आत्म-साक्षात्कार। आत्मा का स्वरूप शुद्ध, बुद्ध और चैतन्य है लेकिन उसका साक्षात्कार सीधा नहीं होता। जिस चित्त के पीछे इतना बवंडर मचाया जाता है, उसे इतना बुरा-भला कहा जाता है और कोसा जाता है, यदि हम उसकी वास्तविकता को जान लेंगे तो आश्चर्य होगा। चित्त जिसे हम चंचल कहकर हेय दृष्टि से देखते हैं, सारी सांसारिकता के लिए जिम्मेदार ठहराते हैं और चित्तदशा को शान्त और स्थिर करने के लिए ध्यान और योगाभ्यास करते हैं। मगर क्या हमने कभी सोचा है कि यदि यही चित्त न होता तो क्या होता ? चित्त न होता तो मानव न होता, मानव योनि में जीव का जन्म ही न होता। मानव शरीर धारण करने लिए चित्त(मन) का होना अनिवार्य है। मन एक तत्व है--एक अनिवार्य तत्व। मन है उसके पास तभी तो वह मनुष्य है। मन मनुष्य के अलावा और किसी प्राणी के पास नहीं है। यहाँतक कि देवोँ के पास भी नहीं है। चित्त नहीं होता तो आत्म साक्षात्कार भी न होता। आत्म साक्षात्कार कभी सीधा नहीं होता। यही चित्त साक्षात्कार का मार्ग बनता है, साधन बनता है और बनता है एक माध्यम। यह सही है कि चित्त की चंचलता के कारण आत्मा की यथावत अनुभूति नहीं हो पाती और चित्त की इस चंचलता का मूल कारण हैं--काम, क्रोध आदि वासनायें जो वृत्तियों का स्थायी रूप धारण कर लेती हैं और कारण हैं --पूर्व संस्कारों के मल भी। इन दोषों को 'विक्षेप' कहते हैं। जबतक यह विक्षेप रहेगा, चित्त चंचल रहेगा और आत्मानुभूति नहीं हो सकेगी। जैसे भूमि पर गिरने से उठने के लिए भूमि का ही सहारा लेना पड़ता है, काम के अतिक्रमण के लिए काम को सहायक बनाना पड़ता है, उसी तरह चित्त को शान्त और स्थिर करने के लिए चित्त के आश्रय में जाना पड़ता है। आत्मानुभूति सीधे नहीं, चित्त के माध्यम से ही होती है। बस, उसकी चंचलता को योगाभ्यास से दूर करना होता है। चित्त की वृत्तियाँ तालाब में उठी लहरों के समान होती हैं तो लहरों को शान्त करने के लिए तालाब को मिटाना या सुखाना मूर्खता के सिवाय और क्या होगा ? चित्त की वृत्तियों को निरूद्ध करने के बाद चित्त में फिर आत्मा को आवृत करने की शक्ति नहीं रह जाती। योग कोई बाहर से नयी शक्ति प्रदान नहीं करता, वह तो जो हमारे भीतर है, उसे ही निकाल देता है। आत्मदर्शन और आत्म साक्षात्कार के मार्ग में चित्त के द्वारा उत्पन्न की गयी बाधा को दूर करता है।
योग भारतीय दर्शन की वह दृष्टि है जिसने मानव जीवन को शब्दाडंबर से अलग रखा और उसको एक गंभीरता प्रदान की। उसको प्रयोग दिया, क्रिया दी। योग के द्वारा आत्मदर्शन करना सबसे बड़ा धर्म है और परम लक्ष्य भी।
प्रायः यह शंका हो सकती है कि अध्यात्म से तो योग का सम्बन्ध है पर धर्म से उसका कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है। धर्म तो आचरण का विषय है, सदाचार का विषय है। मनुस्मृति में कहा गया है--
"अयं तु परमो धर्म: यद्योगेनात्म दर्शनम्।"
अर्थात्-- योग के माध्यम से आत्मा के दर्शन करना परम धर्म है। इससे योग और धर्म की प्रगाढ़ता का प्रमाण मिल जाता है, जिसे कोई सहज नकार नहीं सकता।
Shiv Ram Tiwari
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