दो विचारो के मध्य जो अवकाश है। वह अवकाश ही उपयोगी है। वही स्थिर अवस्था है। जिस पर ध्यान केंद्रित करने से चेतनतत्व की अनुभूति हो जाती है।
जब तक पानी मे हलचल होती है। तबतक चन्द्रमा का बिम्ब नही दिखाई देता इसी प्रकार मन की चंचलता से ही आत्मा का बिम्ब नही दिखाई देता है।
चित्त जब शून्य अवस्था मे पहुच जाता है। तभी यह ज्ञात होता है। कि क्रिया का कारण भी वही है तथा जो ज्ञान व ज्ञेय है। उसका ज्ञाता भी वही है। ऐसा ज्ञान हो जाना ही परम् उपलब्धि है।
चित्त की व्रती ही ऐसी है। कि वह अपनी इच्छित वस्तु की ओर ही आकृष्ट होती है। उस समय वह दूसरी वस्तु की ओर उसका ध्यान ही नही जाता जब उसे कोई इच्छित वस्तु नही मिलती तभी वह ब्यर्थ और अनुपयोगी को ही उपयोगी समझकर उसकी ओर आकर्षित होता है।
अपने ईस्ट के ध्यान में लगने पर वह सांसारिक पदार्थो की और आकर्षित होता ही नही जब चित्त अपने ईस्ट में इस प्रकार स्थिर हो जाये जैसे पवन रहित स्थान में दीपक की लो स्थिर रहती है। तो इसी अवस्था मे योगी परमानंद की अवस्था प्राप्त होती है।इसी को ब्रह्मस्वरूप होना कहते है।
मन के कारण ही संसार की सभी वस्तुओ में भेद की प्रतीति होती हैं। मन अभेद को नही जान सकता आत्मा के तल पर अभेद का ज्ञान होता है।
मनुस्य बाहरी विषयो में आनंद की खोज करता है। किंतु वह वास्तविक आनंद नही है वास्तविक आनंद तो स्वयं के भीतर ही है। जो स्वयं की आत्मा है।
मनुस्य को आनंद की अनुभूति होती है। वह उस चेतन आत्मा के कारण ही होती है। क्योंकि आत्मा स्वयं आनंद स्वरूप है।
शरीरो में भेद होने से आत्म चेतना में भेद नही हो जाता वह सबमे समान रूप से ब्याप्त है। ऐसा ज्ञान हो जाना ही परम् सिद्धि है।
ओउम
पंडित महाबीर प्रसाद
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