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हम किसे कर्म समझते हैं? हम प्रतिकर्म को कर्म समझे हुए हैं, रिएक्शन को एक्शन समझे हुए हैं। किसी ने गाली दी आपको, और आपने भी उत्तर में गाली दी। आप जो गाली दे रहे हैं, वह कर्म न हुआ; वह प्रतिकर्म हुआ, रिएक्शन हुआ। किसी ने प्रशंसा की, और आप मुस्कुराए, आनंदित हुए; वह आनंदित होना कर्म न हुआ; प्रतिकर्म हुआ, रिएक्शन हुआ।
आपने कभी कोई कर्म किया है! या प्रतिकर्म ही किए हैं?
चौबीस घंटे, जन्म से लेकर मृत्यु तक, हम प्रतिकर्म ही करते हैं; हम रिएक्ट ही करते हैं। हमारा सब करना हमारे भीतर से सहज-जात नहीं होता, स्पांटेनियस नहीं होता। हमारा सब करना हमसे बाहर से उत्पादित होता है, बाहर से पैदा किया गया होता है।
किसी ने धक्का दिया, तो क्रोध आ जाता है। किसी ने फूलमालाएं पहनाईं, तो अहंकार खड़ा हो जाता है। किसी ने गाली दी, तो गाली निकल आती है। किसी ने प्रेम के शब्द कहे, तो गदगद हो प्रेम बहने लगता है। लेकिन ये सब प्रतिकर्म हैं।
ये प्रतिकर्म वैसे ही हैं, जैसे बटन दबाई और बिजली का बल्ब जल गया; बटन बुझाई और बिजली का बल्ब बुझ गया। बिजली का बल्ब भी सोचता होगा कि मैं कर्म करता हूं जलने का, बुझने का। लेकिन बिजली का बल्ब जलने-बुझने का कर्म नहीं करता है। कर्म उससे कराए जाते हैं। बटन दबती है, तो उसे जलना पड़ता है। बटन बुझती है, तो उसे बुझना पड़ता है। यह उसकी स्वेच्छा नहीं है।
इसको ऐसा लें, किसी ने आपको गाली दी। और अगर आप गाली का उत्तर देते हैं, तो थोड़ा सोचें, यह गाली का उत्तर आपने दिया या देना पड़ा? अगर दिया, तो कर्म हो सकता है; देना पड़ा, तो प्रतिकर्म होगा।
आप कहेंगे, दिया, चाहते तो न देते। तो फिर चाहकर कोशिश करके देखें, तब आपको पता चलेगा। हो सकता है, ओंठों को रोक लें, तो भीतर गाली दी जाएगी। तब आपको पता चलेगा, गाली मजबूरी है; बटन दबा दी है किसी ने। और अगर कोई गाली दे, और आपके भीतर गाली न उठे, तो कर्म हुआ। तो आप कह सकते हैं, मैंने गाली न देने का कर्म किया।
कर्म का अर्थ है, सहज। प्रतिकर्म का अर्थ है, प्रेरित, इंस्पायर्ड। कारण है जहां बाहर, और कर्म आता है भीतर से, वहां कर्म नहीं है।
हम चौबीस घंटे प्रतिकर्म में ही जीते हैं। बुद्ध, या महावीर, या कृष्ण, या क्राइस्ट जैसे लोग कर्म में जीते हैं। उनके जीवन में प्रतिकर्म खोजे से भी नहीं मिलेगा।
प्रतिकर्म गुलामी है, स्लेवरी है; दूसरा आपसे करवा लेता है। जब दूसरा आपसे कुछ करवा लेता है, तो आप गुलाम हैं, मालिक नहीं। कर्म तो वे ही कर सकते हैं, जो गुलाम नहीं हैं।
☘️💞☘️ओशो ☘️💞☘️
गीता-दर्शन – भाग दो
वर्ण-व्यवस्था का मनोविज्ञान
(अध्याय ४) प्रवचन—छठवां
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